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२८९] त्रयोविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
प्रथम तीर्थंकर के साधुओं द्वारा आचार मर्यादा (कल्प) शुद्धरूप में ग्रहण करना (दुव्विसोज्झो) दुष्कर है तथा अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं द्वारा उसका निर्मल रूप से पालन करना कठिन है और मध्य के तीर्थंकरों के साधुओं के लिए आचार (कल्प) का ग्रहण करना और पालन करना सरल है ॥२७॥
For the sages of first tirthamkara to understand the code of conduct in its pure form is difficult while for the last's to practise it in its pure form is difficult and for those of middle 22 tirthamkaras it is easy to understand and practise. (27)
साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो ।
अन्नो वि संसओ मझ, तं मे कहसु गोयमा ! ॥२८॥ (केशी कुमारश्रमण) हे गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। तुमने मेरा यह संशय मिटा दिया। मेरा एक संशय और है। हे गौतम ! उसके विषय में मुझे कहें, (मेरा सन्देह दूर करें) ॥२८॥
(Keši) Gautama ! Really your intelligence is good. You have removed my this doubt. I have another suspicion. Gautama ! please reconcile that also. (28)
अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो सन्तरुत्तरो ।
देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महाजसा ॥२९॥ यह अचेलक धर्म वर्द्धमान द्वारा उपदिष्ट है और वर्ण आदि से युक्त तथा मूल्यवान वस्त्र वाला (संतरुत्तर) धर्म महायशस्वी पार्श्व ने बताया है ॥२९॥
Bhagawāna Mahavira forbade the clothes (for a monk) and Bhagawāna Pārsvanātha allowed multi-coloured costly clothes. (29)
एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं ? ।
लिंगे दुविहे मेहावि ! कहं विप्पच्चओ न ते ? ॥३०॥ एक ही कार्य-लक्ष्य में प्रवृत्त दोनों में इस विशेषता-भिन्नता का कारण क्या है ? हे मेधावी ! इन दो प्रकार के लिंगों से क्या तुम्हें संशय नहीं होता ? ॥३०॥
Both pursuing for the same end, then why is this difference ? O wise ! these two types of code does not create any suspicion in your mind ? (30)
केसिमेवं बुवाणं तु, गोयमो इणमब्बवी ।
विन्नाणेण समागम्म, धम्मसाहणमिच्छियं ॥३१॥ (गौतम गणधर) केशी के यह कहने पर गौतम ने इस प्रकार कहा-विज्ञान (विशिष्ट प्रकार के ज्ञान) से जानकर ही धर्म-साधनों की अनुज्ञा दी गई है ॥३१॥
(Gautama) To these words of Keśī, Gautama replied-Having known by super knowledge the means of religion (code) are allowed. (31)
पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणविहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगप्पओयणं ॥३२॥ For Private & Personal Use Only
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