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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एकविंश अध्ययन [ २६४
The restrained ascetic diparaging adversities, endure all-favourable or disfavourabledear or undear, not desire everywhere everything (the heart pleasing things) and nor care for respect or blame. (15)
अगछन्दा इह माणवेहिं, जे भावओ संपगरेइ भिक्खू | भयभेरवा तत्थ उइन्ति भीमा, दिव्वा मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा ||१६||
मानवों के अनेक प्रकार के अभिप्राय (छन्द) होते हैं। भिक्षु अपने मन में उन्हें सम्यक् प्रकार से ग्रहण करे, जाने तथा देवों, मानवों, तिर्यंचों कृत भयोत्पादक घोर उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करे ||१६||
There are innumerable types of intentions and purports of men. Mendicant should know and be aware of them in true light and should endure the fearful turbuleneces (34) caused by gods, deities, demons, spirits, man and brute beasts. ( 16 )
परीसहा दुव्विसहा अणेगे, सीयन्ति जत्था
बहुकायरानरा |
ते तत्थ पत्ते न वहिज्ज भिक्खू, संगामसीसे इव नागराया ॥१७॥
अनेक दुस्सह परीषह उपस्थित होने पर बहुत से कायर व्यक्ति खेद करते हैं किन्तु संग्राम में सबसे आगे रहने वाले हाथी के समान भिक्षु परीषहों से खेदित न हो ॥१७॥
Occuring many difficulties the discouraged persons become depressed but like a stately elephant at the head of battle ascetic should not be depressed if comes in contact with those troubles. (17)
सीओसिणा दंसमसा य फासा, आयंका विविहा फुसन्ति देहं । अकुक्कुओ तत्थ ऽहियासएज्जा, रयाइं खेवेज्ज पुरेकडाई ॥ १८ ॥
शीत, उष्ण, दंश-मशक, तृण-स्पर्श तथा अन्य अनेक प्रकार के आतंक जब भिक्षु के शरीर को स्पर्श करें - पीड़ित कष्टित करें तब वह कुत्सित शब्द न करके उन्हें समभाव से सहे तथा पूर्वकृत कर्मों को क्षीण करे ॥१८॥
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Cold, heat, gnats and flies, pricks of straw and the other troubles when touch and afflictcause pains and miseries; then the ascetic should endure them without flinching and with evenmind; and should destroy the karmas accumulated previously. (18)
पहाय रागं च तहेव दोसं, मोहं च भिक्खू सययं वियक्खणो । मेरु व्व वाएण अकम्पमाणो, परीसहे आयगुत्ते सहेज्जा ॥१९॥
बुद्धिमान भिक्षु सदा ही राग-द्वेष और मोह का परित्याग करके, वायु (प्रभंजन) से अकम्पित मेरु (पर्वत) के समान आत्मगुप्त रहकर परीषहों को सहे ॥१९॥
Wise mendicant, renouncing attachment, detachment and infatuation should remain as steadfast as mountain Meru, which cannot be shaken by strongest storms, being fixed in his soul-virtues endure the troubles. (19)
अणुन्नए नावणए महेसी, न यावि पूयं गरहं च संजए । स उज्जुभावं पडिवज्ज संजए, निव्वाणमग्गं विरए उवेइ ॥२०॥
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