________________
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
वह शील रहित साधु अपने घोर अज्ञानान्धकार के कारण (तमंतमेणेव ) विपरीत दृष्टि वाला हो जाता है तथा असाधु प्रवृत्ति वाला वह साधु मुनि धर्म (मोणं) की विराधना करके, सदा दुःखी होकर नरक तिर्यंच गति में जन्म-मरण करता रहता है ॥४६॥
२५५] विंशति अध्ययन
That sage devoid of good conduct, becomes of perverse thoughts, due to his own dense ignorance and that unsage doing the dis-propiliation of monk-order being always full of miseries transmigrates in hellish and beast existences. (46)
उद्देसियं कीयगडं नियागं, न मुंचई किंचि अणेसणिज्जं । अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता, इओ चुओ गच्छइ कट्टु पावं ॥४७॥
जो औद्देशिक, खरीदा हुआ, नित्यपिंड आदि थोड़ा-सा भी अनेषणीय आहार नहीं छोड़ता, अग्नि की भाँति सर्वभक्षी वह साधु पापकर्म करके यहाँ से मरण करके दुर्गति में जाता है ॥४७॥
Who accepts the food prepared for him, bought for his sake, and regular food-thus forbidden food, all-eater like fire; that sage due to his sinful deeds goes to illexistences. (47)
न तं अरी कंठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहि मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥४८॥
उस साधु की दुष्प्रवृत्तिशील आत्मा जैसा अनर्थ करती है, वैसा तो गला काटने वाला शत्रु भी नहीं करता । दया-संयमविहीन वह साधु मृत्यु के मुख में पहुँचने पर पश्चात्ताप करता हुआ इस तथ्य को जान पाता है ॥४८॥
No cut-throat enemy harms, as his own soul indulged in bad tendencies. Devoid of compassion and restrain that can be aware of this fact at death hours with laments. (48)
तस्स, जे उत्तमट्ठ
निरट्ठिया नग्गरुई उ विवज्जासमेइ । इमे वि से नत्थ परे वि लोए, दुहओ वि से झिज्जइ तत्थ लोए ॥ ४९ ॥
जिस साधक की मोक्ष रूप अर्थ में विपरीत दृष्टि होती है उसकी साधुत्व में रुचि ( नग्गरुई) व्यर्थ है । उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है; वह दोनों लोकों से भ्रष्ट हो जाता है ॥ ४९ ॥
Who has perverse thinking about salvation, his inclination towards sagehood is of no use. For that adept neither this world nor that, he is a loser of both the worlds. (49)
एमेव हाछन्द - कुसीलरूवे, मग्गं विराहेतु जिणुत्तमाणं । कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा, निरट्ठसोया परियावमेइ ॥ ५० ॥
इसी प्रकार स्वच्छन्द और कुशील साधु जिनेन्द्र भगवान के मार्ग की विराधना करके तथा भोग और रसों में आसक्त होकर निरर्थक शोक करने वाली गीध पक्षिणी समान परिताप करता है ॥५०॥
In the same way the self-willed and bad monk dispropiliating the path prescribed by Jinas and being indulged in tastes etc., he laments like a she-vulture, who sorrows for nothing. (50)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jaielibrary.org