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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
यह आत्मा ही अपने सुख-दुःखों का कर्ता है और भोक्ता भी यही है। शुभ प्रवृत्तियों में प्रवृत्त आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्तियों लीन आत्मा अपना ही शत्रु है ॥३७॥
२५३] विंशति अध्ययन
The soul itself is the doer and undoer of joy and miseries. Indulged in auspicious tendencies it is its friend and becomes foe doing inauspicious deeds. (37)
इमा हु अन्ना वि अणाहया निवा !, तमेगचित्तो निहुओ सुणेहिं । नियण्ठधम्मं लहियाण वी जहा, सीयन्ति एगे बहुकायरा नरा ॥३८॥ नरेश ! एक अन्य प्रकार की भी अनाथता है, उसे एकाग्र और शान्त हृदय से सुनो। बहुत से ऐसे भी कायर पुरुष होते हैं जो निर्ग्रन्थ धर्म को प्राप्त करके भी खिन्न हो जाते हैं- दुःख का अनुभव करते हैं ॥३८॥
O king! There is another type of unprotectedness, listen that with peace-mind and attentively. There are some persons, those may easily be discouraged and go astray even adopting the order of knotless monk and become sorrowful. (38)
जो पव्वइत्ताण महव्वयाई, सम्मं नो फासयई पमाया अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, न मूलओ छिन्दइ बन्धणं से ॥३९॥
जो प्रव्रजित होकर प्रमाद के कारण महाव्रतों का सम्यक् रूप से परिपालन नहीं करता, आत्मा और इन्द्रियों का निग्रह नहीं करता, रसों- स्वादों में आसक्त रहता है वह बन्धनों का मूलोच्छेद नहीं कर सकता ॥ ३९॥
Who being consecrated, due to negligence does not properly practise the great vows, control his own soul, and senses, indulges to tastes; he cannot uproot the bondages. (39)
आउत्तया जस्स न अत्थि काइ, इरियाए भासाए तहेसणाए । आयाण-निक्खेव-दुर्गुछणाए, न वीरजायं अणुजाइ मग्गं ॥४०॥
जिस साधक की ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उच्चार-प्रस्रवण (दुगंछण - जुगुप्सा उत्पन्न करने वाली) परिष्ठापनिका -इन पाँचों समितियों में यतना ( - आइत्तया) नहीं है, वह उस मार्ग पर नहीं चल सकता है, जिस पर वीर पुरुष चलते हैं ॥ ४० ॥
Who is not circumspect with five circumspections (1) of movement, (2) of speaking (3) seeking for necessities, (4) take-put (5) about excretions of body; he cannot follow the path trod by braves. (40)
चिरं पिसे मुण्डरुई भवित्ता, अथिरव्वए तव-नियमेहि भट्ठे । चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता, न पारए होइ हु संपराए ॥ ४१ ॥
जो महाव्रतों के पालन में अस्थिर और तप-नियमों के आचरण से भ्रष्ट है, वह मुण्डित ( मुण्डरुचि ) (केशलोंच आदि द्वारा ) दीर्घकाल तक शरीर को कष्ट देकर भी संसार से पार नहीं हो सकता है ॥ ४१ ॥
Who is not steady in observing the great vows, slipped in practising penances and regulations (codes) that having hairless head, mortifies his body for a long time by tonsure etc., but cannot cross the ocean of world. (41)
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