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२४७] विंशति अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
उस संयत के रूप को देखकर राजा के मन में उसके प्रति अत्यधिक अतुलनीय आश्चर्य हुआ ॥५॥ Seeing that sage king filled with great astonishment. (5)
अहो ! वण्णो अहो ! रूवं, अहो ! अज्जस्स सोमया ॥
अहो ! खंती, अहो ! मुत्ती, अहो ! भोगे असंगया ॥६॥ राजा श्रेणिक के हृदय में आश्चर्यकारी भाव उमड़े-अहो ! इस संयत का क्या वर्ण है ? क्या रूप है ? कैसी सौम्यता है ? कितनी क्षमा है ? कैसी निर्लोभता है ? और भोगों के प्रति कितनी असंगतता है ?॥६॥
Astonished feelings aroused in the heart of king-Oh what a complexion, figure, loveliness, tranquillity, forgiveness, ungreediness and disregard towards pleasures of this sage (6)
तस्स पाए उ वन्दित्ता, काऊण य पयाहिणं ।
नाइदूरमणासन्ने, पंजली पडिपुच्छई ॥७॥ उस साधु की प्रदक्षिणा तथा वन्दना करके न तो अधिक दूर और न अति समीप-योग्य स्थान पर खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर पूछने लगा-॥७॥
Circumambulating and bowing the sage, king stood at a proper place, which was neither too far nor too near, and began to ask by folding hands-(7)
तरुणोसि अज्ज ! पव्वइओ, भोगकालम्मि संजया !
उवट्ठिओ सि सामण्णे, एयमढें सुणेमि ता ॥८॥ हे आर्य ! हे संयत ! आप भोग काल में युवावय में प्रव्रजित हुए हो, श्रामण्य की परिपालना कर रहे हो। इसका क्या कारण है ? मैं सुनना चाहता हूँ ॥८॥
O noble ! O restrained ! You are consercated in young age-which is called life-period of enjoyments, rejoicings and pleasures; and practising sagehood. What is the cause of it? I want to listen-to know. (8)
अणाहो मि महाराय !, नाहो मज्झ न विज्जई ।
अणुकम्पगं सुहिं वावि, कंचि नाभिसमेमऽहं ॥९॥ (साधु) महाराज ! मैं अनाथ हूँ, मेरा कोई नाथ नहीं है। अनुकम्पा करने वाला कोई सुहृत मित्र भी मुझे | न मिल पाया ॥९॥
(Monk) Monk told-King ! I was without protector, no body was to protect me, neither a friend nor a sympathiser. (9)
तओ सो पहसिओ राया, सेणिओ मगहाहिवो ।
एवं ते इड्ढिमन्तस्स, कहं नाहो न विज्जई ? ॥१०॥ (श्रेणिक) यह सुनकर मगधपति राजा श्रेणिक जोर से हंसा और फिर बोला-तुम ऋद्धि संपन्न दिखाई देते हो, फिर भी तुम्हारा कोई नाथ कैसे नहीं है ?॥१०॥
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