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१२३९] एकोनविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
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(strong desire for worldly amusements and rejoicings), bondages of attachment and aversion-(92)
अणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ ।
वासीचन्दणकप्पो य, असणे अणसणे तहा ॥९३॥ इस लोक तथा परलोक में भी प्रतिबद्धता रहित-अनासक्त, वसूले से काटने-छीलने अथवा गोशीर्ष चन्दन लगाये जाने पर भी समभाव रखने वाला तथा आहार मिलने अथवा न मिलने पर भी समत्व भाव रखने वाला-||९३॥
Non-addicted to this and that world (लोक), peace-minded even, if his body is cut and scratched by axe or the best sandal-wood besmeared, eating food or on fast-(93)
अप्पसत्थेहिं दारेहिं, सव्वओ पिहियासवे ।
अज्झप्पज्झाणजोगेहिं, पसत्थ-दमसासणे ॥९४॥ अप्रशस्त द्वारों-पापकर्मों के आसवों के हेतुओं का सभी प्रकार से निरोध करके मृगापुत्र प्रशस्त संयम, इन्द्रिय दमन और साध्वाचार में, आध्यात्मिक ज्ञानयोग में लीन हो गया ॥९४॥
By obstructing all types of inflow of inauspicious-sinful karmas, Mţgāputra completely engrossed in auspicious restrain, controlling senses, sage-order and sacred spiritual knowledge meditation. (64)
एव नाणेण चरणेण, दंसणेण तवेण य ।
भावणाहि य सुद्धाहिं, सम्मं भावेत्तु अप्पयं ॥९५॥ इस प्रकार ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप और विशुद्ध भावनाओं से अपनी आत्मा को सम्यक् रूप से भावित करते हुए-॥९५॥
Thus engrossing well his own soul in right knowledge-faith-conduct-penance and pure reflections (feelings)-(95)
बहुयाणि उ वासाणि, सामण्णमणुपालिया ।
मासिएण उ भत्तेण, सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं ॥९६॥ बहुत वर्षों तक श्रमण धर्म का अनुपालन करते रहे, आयु के अन्त में एक मास का भक्त प्रत्याख्यान करके मृगापुत्र मुनि ने अनुत्तर गति-सिद्धि गति प्राप्त की ॥९६॥
Practising sage-order for many years and in the end of this life-duration observing one month's fast-penance (giving up food-water etc., all kinds of eatables till life.) sage Mrgaputra attained liberation. (96)
एवं करन्ति संबुद्धा, पण्डिया पवियक्खणा ।
विणियट्टन्ति भोगेसु, मियापुत्ते जहारिसी ॥९७॥ जैसे ऋषि मृगापुत्र युवावस्था में भोगों से विरक्त हुए उसी प्रकार तत्त्वज्ञानी, पण्डित और विचक्षण | व्यक्ति भी सांसारिक भोगों से निवृत्त होते हैं ।।९७||
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