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२२९] एकोनविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
जहा तुलाए तोलेउ, दुक्करं मन्दरो गिरी ।
तहा निहुयं नीसंकं, दुक्करं समणत्तणं ॥४२॥ जैसे मंदरगिरि-मेरु पर्वत को तराजू से तोलना दुष्कर है, वैसे ही निश्चल और निःशंक होकर श्रमण धर्म का पालन दुष्कर है ॥४२॥
As to weigh the mountain Meru-Mandara Giri by balance is too much difficult task so to practise sagehood steadily and undoubtedly is very difficult. (42)
जहा भुयाहिं तरिउं, दुक्करं रयणागरो ।
तहा अणुवसन्तेणं, दुक्करं दमसागरो ॥४३॥ जैसे रलाकर समुद्र को भुजाओं से तैरना दुष्कर है, वैसे ही अनुपशांत व्यक्ति के लिए संयम के सागर को पार करना दुष्कर है ॥४३॥
It is difficult to swim over and cross the ocean full of gems by arms, so its is too much difficult to cross the ocean of restrainment for the man whose mind is unpacified. (43)
भुंज माणुस्सए भोगे, पंचलक्खणए तुमं ।
भुत्तभोगी तओ जाया ! पच्छा धम्म चरिस्ससि ॥४४॥ हे पुत्र ! पहले तुम पांच लक्षणों वाले (शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श) मनुष्य संबंधी भोगों का उपभोग करो, उसके उपरान्त भुक्तभोगी बनकर श्रमणधर्म का आचरण करना ॥४४॥
O son ! therefore you enjoy the five-fold (of touch, taste, smell, sight and hearing-the objects of senses respectively) human pleasures. Afterwards you may practise sage-order. (44)
तं बिंत ऽम्मापियरो, एवमेयं जहा फुडं ।
इह लोए निप्पिवासस्स, नत्थि किंचि वि दुक्करं ॥४५॥ (मृगापुत्र) मृगापुत्र ने कहा-आपने श्रामण्य की दुष्करता के लिए जो कहा, वह सब सत्य है; लेकिन इस संसार से जिसकी तृष्णा शांत हो जाती है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है ॥४५॥
(Mrgaputra) Hearing these words of parents, Mrgaputra replied-Revered Mother and Father ! What you have told about sage-order is completely true; but whose worldly desire becomes pacified, for him nothing is difficult. (45)
सारीर-माणसा चेव, वेयणाओ अणन्तसो ।
मए सोढाओ भीमाओ, असई दुक्खभयाणि य ॥४६॥ मैंने शारीरिक और मानसिक वेदनाएँ अनेक बार भोगी हैं और दुःख एवं भयों का भी अनुभव किया है ॥४६॥
I have suffered mental and bodily agonies innumerable times and experienced pains and fears. (46)
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