________________
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
पञ्चदश अध्ययन [१७८
Who gets various sorts of food, water, dainties and delicacies but shows no favour in exchange of these receipts, neither blesses nor benefits him but remains under strict discipline of mind, speech and body; he is a true mendicant. (12)
आयामगं चेव जवोदणं च, सीयं च सोवीर-जवोदगं च |
नो हीलए पिण्डं नीरसं तु, पन्तकुलाइं परिव्वए स भिक्खू ॥१३॥ धान्य, यव का ओसामण, ठंडा भोजन, कांजी का पानी तथा जी का पानी-ऐसे स्वाद रहित भोजन की जो निन्दा नहीं करता; साधारण घरों में भिक्षाटन करता है; वह भिक्षु है ॥१३॥
Rice-water, barley-pap, cold-sour gruel, barley wash-who does not despise such tasteless food and wander for alms in most ordinary lowly houses; he is a true mendicant. (13)
सद्दा विविहा भवन्ति लोए, दिव्वा माणुस्सगा तहा तिरिच्छा ।
भीमा भयभेरवा उराला, जो सोच्चा न वहिज्जई स भिक्खू ॥१४॥ जगत में देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी तथा तिर्यंच सम्बन्धी अनेक भीषण, भयोत्पादक और रौद्र शब्द होते हैं, जो उन शब्दों को सुनकर भयभीत नहीं होता ; वह भिक्षु है ॥१४॥
Many cruel, dreadful, frightful, awful noises and voices occur in this world of gods, men, beasts; he who does not engulfed with fear hearing those voices; he is a true monk. (14)
वादं विविहं समिच्च लोए, सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा ।
पन्ने अभिभूय सव्वदंसी, उवसन्ते अविहेडए स भिक्खू ॥१५॥ इस जगत में प्रचलित धर्म संबंधी अनेक प्रकार के वादों को जानकर भी जो अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र से युक्त होकर संयम में संलग्न रहता है, जिसे शास्त्रों के परमार्थ का ज्ञान है, जो प्राज्ञ है, परीषहों पर विजय प्राप्त कर जो सबके प्रति समदृष्टि रखता है, उपशान्त है, किसी का न अपमान करता है, न पीड़ा देता है; वह भिक्षु है ॥१५॥
In this world there are many religious sects (disputations), knowing all these, who with his own right knowledge-faith-conduct deeply indulges in his restrain, who is well versed in scriptural knowledge, who is wise and witty, conquering the troubles, who keeps equalequanimous sight on all, peaceful is he, insults none, nor injures; he is a true mendicant. (15)
असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइन्दिए सव्वओ विप्पमुक्के । अणुक्कसाई लहुअप्पभक्खी, चेच्चा गिहं एगचरे स भिक्खू ॥१६॥
-त्ति बेमि । जो शिल्पजीवी नहीं है, गृहविहीन है, जिसका कोई शत्रु अथवा मित्र नहीं है, जो जितेन्द्रिय है, परिग्रह से सर्वथा मुक्त है, जिसके कषाय अति मन्द हैं, जो हल्का-नीरस-अल्प भोजन ग्रहण करता है, गृहवास को छोड़ चुका है, अकेला-एक मात्र संयमभावों में विचरण करता है; वह भिक्षु है ॥१६॥ -ऐसा मैं कहता हूँ।
He who, not living by any art or craft, who has neither friend nor foe, who has subdued his senses, free of all possessions, whose passions are dimmed to lowest degree, eats
For Private & Personal Use Only
Jain Educahon international
www.jainelibrary.org