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१७७] पञ्चदश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र ,
मन्तं मूलं विविहं वेज्जचिन्तं, वमणविरेयणधूमणेत्त-सिणाणं । .
आउरे सरणं तिगिच्छियं च, तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥८॥ जो रोग आदि से ग्रसित होने पर भी मंत्र, जड़ी-बूटी, आदि तथा वमन, विरेचन, धूम्रपान की नली, स्नान और स्वजनों की शरण एवं चिकित्सा का त्याग कर. देता है तथा अप्रतिबद्ध विहार करता है; वह भिक्षु है ॥८॥
__ The adept even caught by diseases, abandons-charms (spell), roots and herbs etc., and vomitting, purgatives, fumingation, smoking pipe, bathing, refuge and consolation of family members etc., -every kind of medical or other treatment; he is a true mendicant. (8)
खत्तियगणउग्गरायपुत्ता, माहणभोइयविविहा य सिप्पिणो । __नो तेसिं वयइ सिलोगपूर्य, तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥९॥ क्षत्रिय, गण, उग्र, राजपुत्र, ब्राह्मण, भोगिक-सामन्त आदि-तथा अनेक प्रकार के शिल्पियों की प्रशंसा में कभी एक शब्द भी नहीं बोलता अपितु इसे हेय समझता है; वह भिक्षु है ॥९॥
Warriors (क्षत्रिय), ugra, gana, princes, brahmanas, bhogikas-chieftains and artisans of all sorts, he who does not utter a word in praise of all these and abstains from all of them; he is a true mendicant. (9)
गिहिणो जे पव्वइएण दिट्ठा, अप्पव्वइएण व संथुया हविज्जा ।
तेसिं इहलोइयफलट्ठा, जो संथवं न करेइ स भिक्खू ॥१०॥ प्रव्रजित होने के बाद अथवा पहले के परिचित व्यक्तियों के साथ इस लोक के फल-प्राप्ति हेतु जो संपर्क-मेल-जोल नहीं रखता; वह भिक्षु है ॥१०॥
Prior or posterior to his consecration, the acquaints, he does not contact for getting some gains of this mundane existence; he is a true mendicant. (10)
सयणासण-पाण-भोयणं, विविहं खाइमं साइमं परेसिं ।
अदए पडिसेहिए नियण्ठे, जे तत्थ न पउस्सई स भिक्खू ॥११॥ शयन, आसन, पान, भोजन तथा अनेक प्रकार के खाद्य और स्वाद्य पदार्थ कोई (गृहस्थ) स्वयं न दे अथवा माँगने पर भी न दे, इन्कार कर दे, उस व्यक्ति पर क्रोध-द्वेष न करने वाला निर्ग्रन्थ ही भिक्षु है ॥११॥ ___ If a householder does not bestow lodge, bed, drink (lifeless water) and food, dainties and delicacies of many sorts, even then he does not give on asking, totally denies-not loses temper on such man; he is a true mendicant. (11)
जं किंचि आहारपाणं विविहं, खाइम-साइमं परेसिं ल« ।
जो तं तिविहेण नाणुकंपे, मण-वय-कायसुसंवुडे स भिक्खू ॥१२॥ जो गृहस्थों से विभिन्न प्रकार के भोजन-पानी-खाद्य-स्वाद्य पदार्थ प्राप्त करके बदले में उन पर अनुकम्पा नहीं करता-आशीर्वाद नहीं देता-उपकार नहीं करता, अपितु मन-वचन-काया से सुसंवृत रहता है; वह भिक्षु है ॥१२॥
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