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________________ १७९ ] पञ्चदश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र tasteless yet little and light food, quitted home, remaining alone engrossed in restrainment; he is a true mendicant. ( 16 ) -Such I speak विशेष स्पष्टीकरण गाथा १ - संस्तव के दो अर्थ हैं - स्तुति और परिचय । यहाँ परिचय अर्थ अनुकूल है। संस्तव के दो प्रकार है-संवास-संस्तव और वचन - संस्तव । असाधु जनों के साथ रहना संवास-संस्तव है और उनके साथ आलाप संलाप करना "वचन-संस्तव" है। साधक के लिये दोनों ही निषिद्ध हैं। (चूर्ण) गाथा ७ - यहाँ दश विद्याओं का उल्लेख है। उनमें (१) दण्ड- विद्या, (२) स्वर - विद्या, (३) वास्तु-विद्या को छोड़कर शेष सात विद्यायें निमित्त के अंग माने गये हैं। (9) अंग, (२) स्वर, (३) लक्षण, (४) व्यंजन (५) स्वप्न (६) छित्र, (७) भीम और (८) अन्तरिक्ष ये अष्टांग निमित्त हैं। । काष्ट, वस्त्र आदि में चूहे या कांटे आदि के द्वारा किये गये छेदों पर से शुभाशुभ का ज्ञान करना छिन्न निमित्त है। (२) भूकम्प आदि के द्वारा, अथवा अकाल में होने वाले बेमौसमी पुष्प फल आदि से शुभाशुभ का ज्ञान करना, भौम निमित्त है। भूमिगत धन एवं धातु आदि का ज्ञान करना भी "भौम' है। (३) आकाश में होने वाले गन्धर्व नगर, दिग्दाह और धूलिवृष्टि आदि तथा ग्रहयोग आदि से शुभाशुभ का ज्ञान करना अन्तरिक्ष निमित्त है। (४) स्वप्न पर से शुभाशुभ का ज्ञान करना स्वप्न निमित्त है। (५) शरीर के लक्षण तथा आँख फड़कना आदि अंगविकारों पर से शुभाशुभ का ज्ञान करना, क्रमशः लक्षण निमित्त और अंगविकार निमित्त हैं। (६) दण्ड के गांठ आदि विभिन्न रूपों पर से शुभाशुभ का ज्ञान करना, दण्ड- विद्या है। (७) मकानों के आगे-पीछे के विस्तार आदि लक्षणों पर से शुभाशुभ का ज्ञान करना, वास्तु विद्या है। (८) षड्ज, ऋषभ आदि सात स्वरों पर से शुभाशुभ का ज्ञान करना, स्वर विद्या है। उक्त विद्याओं के प्रयोग से मिक्षा प्राप्त करना, भिक्षा का "उत्पादना" नामक एक दोष है। गाथा ८- परम्परानुसार " धूमनेत्त" एक संयुक्त शब्द माना गया है। जब कि टीकाकार धूम और नेत्र दो भिन्न शब्द मानते हैं। उनके मतानुसार धूम का अर्थ है- मनःशिला आदि धूप से शरीर को धूपित करना, और नेत्र का अर्थ है-नेत्र संस्कारक अंजन आदि से नेत्र "आंजना "। मुनिश्री नथमल जी द्वारा संपादित दशवैकालिक और उत्तराध्ययन में धूमनेत्र का 'धूएँ की नली से धुँआ लेना' - अर्थ किया है। स्नान से यहाँ वह स्नान विद्या अभिप्रेत है, जिसमें पुत्र प्राप्ति के लिये मन्त्र एवं औषधि से संस्कारित जल से स्नान कराया जाता है - बृहदवृत्ति। गाथा ९ - आवश्यक निर्युक्ति (गा. १९८) के अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने चार वर्ग स्थापित किये थे - ( १ ) उग्र- आरक्षक, (२) भोग- गुरुस्थानीय, (३) राजन्य- समवयस्क या मित्र स्थानीय, (४) क्षत्रिय-अन्य शेष लोग । भोगिक का अर्थ सामन्त भी होता है। शान्त्याचार्य "राजमान्य प्रधान पुरुष" अर्थ करते हैं। "गण" से अभिप्राय गणतन्त्र के लोगों से है। भगवान् महावीर के समय में लिच्छवि एवं शाक्य आदि अनेक शक्तिशाली गणतन्त्र राज्य थे। बृज्जी गणतन्त्र में ९ लिच्छवि और ९ मल्लकी ये काशी - कौशल के १८ गणराज्य सम्मिलित थे। कल्पसूत्र में इन्हें "गणरायाणो" लिखा है। Salient Elucidations Gāthā 1-The word Sarstava has two meanings - ( 1 ) applause and ( 2 ) acquaintance. Here acquaintance is fit. There are two types of acquaintances - (1) living with and (2) talking with. To live For Private & Personal Use Only. Jain Education International www.hindibrary.org
SR No.002912
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year
Total Pages652
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
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