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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
चतुर्दश अध्ययन [१६४
इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं
तं एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरंति त्ति कहं पमाए ? ||१५॥ यह मेरे पास है, यह मेरे पास नहीं है। मुझे यह करना है, यह नहीं करना है-इस प्रकार व्यर्थ की बकवास करने वाले व्यक्ति को मृत्यु उठा लेती है। ऐसा स्थिति में प्रमाद कैसा ? ॥१५॥
I have this, I have not that; I must do it, I should not do that. These are all the fallacies and vain talks. Death takes up such person, then why to be negligent in this position. (15)
धणं पभूयं सह इत्थियाहिं, सयणा तहा कामगुणा पगामा ।
तवं कए तप्पइ जस्स लोगो, तं सव्व साहीणमिवेह तुब्भं ॥१६॥ (पिता) जिसके लिए व्यक्ति तपस्या करते हैं, वे सब साधन-प्रचुर धन, स्त्रियाँ, उत्कृष्ट काम-भोग तथा स्वजन तुम्हें यहीं पर स्वाधीन रूप से प्राप्त हैं तब परलोक के इन सुखों के लिए साधु क्यों बनते हो ? ॥१६॥
(Father) Enormous wealth, women, excellent pleasures etc., for getting these all, men practise penances. While all these are feasible to you, then why you want to be an ascetic for getting all these in the next birth. (16)
धणेण किं धम्मधुराहिगारे, सयणेण वा कामगुणेहि चेव ।
समणा भविस्सामु गुणोहधारी, बहिंविहारा अभिगम्म भिक्खं ॥१७॥ (पुत्र) धर्म की धुरा को धारण करने वाले को धन, स्वजन, कामभोगों से क्या प्रयोजन है ? हम तो गुणों के धारक, अप्रतिबद्ध विहारी शुद्ध भिक्षाजीवी श्रमण बनेंगे ॥१७॥
(Sons) The maintainers of the axis of religion have what purpose with wealth, relations and pleasures? We want only to be virtuous mendicants. (17)
जहा य अग्गी अरणीउऽसन्तो, खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु ।
एमेव जाया ! सरीरंसि सत्ता, संमुच्छई नासइ नावचिठे ॥१८॥ (पिता) पुत्रो ! जिस तरह अरणिकाष्ठ में अग्नि, दूध में घी और तिलों में तेल असत् होते हुए भी प्रगट होता है। उसी प्रकार शरीर में जीव भी असत् होते हुए भी उत्पन्न होता है और शरीर के नाश के साथ ही नष्ट हो जाता है ॥१८॥
(Father)As fire is produced from the wooden drill (अरणि काष्ठ),ghee (butter) from milk, oil from sesamum seeds, yet these does not exist in them. So is the soul produced in the body. It takes place with the body and perishes as the body finishes. (18)
नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो ।
अज्झत्थहेउं निययऽस्स बन्धो, संसारहेउं च वयन्ति बन्धं ॥१९॥ (पुत्र) रूप, गन्ध आदि रहित अमूर्त भाव-आत्मा, इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता। लेकिन अमूर्तभाव नित्य होते हैं। आत्मा के राग-द्वेषादि आन्तरिक दोषों के कारण ही बन्ध होता है और बन्ध ही संसार का हेतु कहा गया है ॥१९॥
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