________________
तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एकादश अध्ययन [११६
(४) सर्वथा शील रहित न होना, (५) विकृत शील वाला न होना, (६) अतिलोलुपी-रस लंपट न होना, (७) अत्यधिक क्रोधी न होना तथा (८) सदा सत्य में अनुरक्त रहना ॥५॥
(4) not to be averse to discipline; (5) nor to be perverse to discipline; (6) not to be covetuous; (7) not to be choleric and; (8) to be fixed in truth. (5).
अह चउदसहिं ठाणेहिं, वट्टमाणे उ संजए । अविणीए वुच्चई सो उ, निव्वाणं च न गच्छइ ॥६॥ अभिक्खणं कोही हवइ, पबन्धं च पकुव्वई । मेत्तिज्जमाणो वमइ, सुयं लभ्रूण मज्जई ॥७॥ अवि पावपरिक्खेवी, अवि मित्तेसु कुप्पई । सुप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे भासइ पावगं ॥८॥ पइण्णवाई दुहिले, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे ।
असंविभागी अचियत्ते, अविणीए त्ति वुच्चई ॥९॥ चौदह स्थानों-दोषों से युक्त व्यवहार करने वाला संयमी साधु अविनीत कहा जाता है और वह मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता ॥६॥
(१) जो बार-बार क्रोध करता है। (२) दीर्घकाल तक क्रोध करता रहता है। (३) मित्रता किये जाने पर भी उसे ठुकरा देता है। (४) श्रुतज्ञान को उपलब्ध करके उसका अभिमान करता है। ॥७॥
(५) स्खलना होने पर आचार्यादि का तिरस्कार करता है। (६) मित्रों पर भी कुपित होता है। (७) अतिप्रिय मित्र के भी एकान्त में अवगुणवाद बोलता है ॥८॥
(८) असम्बद्ध प्रलाप करता है। (९) द्रोही है। (१०) अभिमानी है। (११) आहार में लुब्ध है। (१२) मन और इन्द्रियों का निग्रह नहीं करता। (१३) असंविभागी है। (१४) अप्रीतिकर है।
वह अविनीत कहा जाता है ॥९॥
The restrained ascetic, if his behaviour is mixed with 14 faults, he is called undisciplined and cannot attain liberation, The 14 faults are as following-(6)
(1) who often loses his temper; (2) who persevers in wrath; (3) who spurns friendship; (4) who is pround of his scriptural knowledge. (7)
(5) Who disgraces the preceptors etc., for their petty slips; (6) to be angry with friends; (7) to speak ill of most dear friend in his absence. (8)
(8) who talks irrelvant; (9) malicious; (10) proudy; (11) greedy of food; (12) does not control his senses and mind; (13) not shares with his fellow ascetics; (14) obnoxious. He is called ill-behaved and undisciplined. (9)
अह पन्नरसहिं ठाणेहिं, सुविणीए त्ति वुच्चई । नीयावत्ती अचवले, अमाई अकुऊहले ॥१०॥ अप्पं चाऽहिक्खिवई, पबन्धं च न कुव्वई । मेत्तिज्जमाणो भयई, सुयं लटुं न मज्जई ॥११॥
For Private & Personal Use Only
Jain EducatIn iernational
www.jainelibrary.org