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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
दशम अध्ययन [१०६
एवं भव-संसारे, संसरइ सुहासुहेहि कम्मेहिं ।
जीवो पमाय-बहुलो, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१५॥ इस प्रकार प्रमाद की अधिकता वाला जीव, शुभाशुभ कर्मों के कारण जन्म-मरणरूप संसार में परिभ्रमण करता रहता है। अतः हे गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत करो ॥१५॥
Thus the soul engrossed by too much negligence, due to auspicious and inauspicious karmas transmigrates in this world full of births and deaths. So Gautama ! be not negligent for even a moment. (15)
लभ्रूण वि माणुसत्तणं, आरिअत्तं पुणरावि दुल्लहं ।
बहवे दसुया मिलेक्खुया, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१६॥ मनुष्य जन्म पाने के बाद भी आर्यत्व की प्राप्ति और भी दुर्लभ है क्योंकि बहुत से मनुष्य दस्यु तथा म्लेच्छ भी होते हैं। अतः हे गौतम ! एक क्षण का भी प्रमाद मत करो ॥१६॥
After getting the birth in human existence it is more difficult to attain nobleness (आर्यत्व) because many men are plunderers (ory) and of low plights (tot 229). Hence Gautama ! be not negligent even for awhile. (16)
लभ्रूण वि आरियत्तणं, अहीणपंचिन्दियया हु दुल्लहा ।
विगलिन्दियया हु दीसई, समय गोयम ! मा पमायए ॥१७॥ आर्यत्व प्राप्ति के उपरान्त भी पाँचों इन्द्रियों की परिपूर्णता प्राप्ति और भी कठिन है; क्योंकि बहुत से आर्य भी परिपूर्ण इन्द्रियों वाले नहीं दिखाई देते। अतः हे गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो ॥१७॥
Attaining nobleness or noble origin the attainment of completion of all the five senses is also difficult; because many nobles suffer by imperfect sense-organs. Hence Gautama ! be not negligent for even an instant. (17)
अहीणपंचिन्दियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा ।
कुतित्थिनिसेवए जणे, समयं गोयम! मा पमायए ॥१८॥ पंचेन्द्रिय की परिपूर्णता प्राप्त होने पर भी उत्तम धर्म का श्रवण और भी कठिन है क्योंकि बहुत से मानव कुतीर्थिकों के उपासक होते हैं। अतः हे गौतम ! क्षण मात्र का भी प्रमाद मत करो ॥१८॥
Obtaining perfect five sense-organs, listening the true religion is more difficult; because many men are worshippers of heretical teachers. Hence Gautama ! have no negligence even for an instant. (18)
लभ्रूण वि उत्तमं सुइं, सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा ।
मिच्छत्तनिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१९॥ उत्तम धर्म का श्रवण होने पर भी इस सद्धर्म पर श्रद्धा होना और भी कठिन है क्योंकि बहुत से मनुष्य मिथ्यात्वी भी होते हैं, मिथ्यात्व का सेवन करते हैं। अतः हे गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत करो ॥१९॥
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