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त सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
नवम अध्ययन [९६
'मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजए ।
न सो सुयक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं ॥४४॥' अज्ञानी तपस्वी एक-एक मास की तपस्या करके पारणे में कुशाग्र-कुश की नोंक पर आये उतना ही भोजन करता है उसका वह घोर तप भी सु-आख्यात-तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित श्रमण धर्म की तुलना में सोलहवीं कला--अंश के बराबर भी नहीं है ॥४४॥
A hermitage, unaware of true religion, observes hunger-hardship upto every 30 days and eats as much eatables as stand on a tip of kuşa grass after one month's fast, his such tremendous hunger-hardship can not even approach the sixteenth part of the Sramana (sage) religious order prescribed by the Tirthankaras. (44)
एयमलृ निसामित्ता, हेऊकारण-चोइओ ।
तओ नमिं रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी-॥४५॥ नमि राजर्षि का यह अर्थ सुनकर तथा हेतु-कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने उनसे कहा-॥४५॥
Hearing this meaningful reply of the royal seer Nami, the ruler of gods inspired by his reasons and causes spoke thus unto him-(45)
'हिरण्णं सुवणं मणिमुत्तं, कंसं दूसं च वाहणं ।
कोसं वड्ढावइत्ताणं, तओ गच्छसि खत्तिया ! ॥४६॥' हे क्षत्रिय ! चाँदी, सोना, मणि, मोती, कांसे के बर्तन, वस्त्र, वाहन तथा कोष को बढ़ाकर उसके उपरान्त प्रबजित होना ॥४६॥
OKsatriya (the talented warrior) ! Exaggerate many times your silver, gold, jewels, gems, pearls, bronze (utensils), cloths, fine robes, carriages, vehicles and treasures; then you accept consecration. (46)
एयमढं निसामित्ता, हेऊकारण-चोइओ ।
तओ नमी रायरिसी, देविन्दं इणब्बवी-॥४७॥ देवेन्द्र के इस कथन को सुन, हेतु-कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने उससे कहा-॥४७॥
Hearing these words of ruler of gods, the royal seer Nami pursuing his reason and cause spoke these words unto him--(47)
'सुवण्ण-रुप्पस उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया ।
नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया ॥४८॥ कैलाश के समान स्वर्ण और चाँदी के असंख्य पर्वत भी हों, किन्तु उनसे भी लोभी व्यक्ति की बिल्कुल भी तृप्ति नहीं होती क्योंकि इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं ॥४८॥
there are innumerable mountains of gold and silver as vast and high as Kailasamountain, even then the greedy person cannot get a bit of contentment because the desires are infinite-as vast as the space. (48)
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