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त सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
अष्टम अध्ययन [८२
जगनिस्सेिएहिं भूएहिं, तसनामेहिं थावरेहिं च ।
नो तेसिमारभे दंडं, मणसा वयसा कायसा चेव ॥१०॥ संसार में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, (उनके द्वारा सताये जाने पर भी) उनके प्रति मन-वचन-काय से हिंसा रूप दण्ड का समारम्भ न करे ॥१०॥
By mind, speech and body, he should not be injurious towards all the movable and immovable beings of the world; even then they cause sufferings to him. (10)
सुद्धेसणाओ नच्चाणं, तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्पाणं ।
जायाए घासमेसेज्जा, रसगिद्धे न सिया भिक्खाए ॥११॥ शुद्ध एषणाओं को जानकर भिक्षु उनका सावधानी से आचरण करे। भिक्षाजीवी साधु संयम यात्रा के सुचारु निर्वाह के लिए आहार की गवेषणा करे लेकिन रसों में गृद्ध न हो ॥११॥
Being well-known with rules of begging alms, the mendicant should strictly observe them. He should eat only with the aim of sustenance of body, so that he can practise restrain; but he should not indulge in tasty dishes. (11)
पन्ताणि चेव सेवेज्जा, सीयपिण्डं पुराणकुम्मासं ।
___ अदु वुक्कसं पुलागं वा, जवणट्ठाए निसेवए मंथु ॥१२॥ मिक्षाजीवी साधु संयमी जीवन यापन के लिए बचा खुचा नीरस आहार, शीत पिंड, पुराने कुल्माषउड़द अथवा सारहीन, रूखा बेर या सत्तू के चूर्ण आदि का सेवन करे ॥१२॥
The ascetic practising mendicani's life order should eat the tasteless, resudary, cold rice, old beans, husk, gram, and grind plums-just to live. (12)
'जे लक्खणं च सुविणं च, अंगविज्जं च जे पउंजन्ति ।
न हु ते समणा वुच्चन्ति', एवं आयरिएहिं अक्खायं ॥१३॥ आचार्यों ने ऐसा कहा है कि जो साधु शुभाशुभ लक्षण सूचक, स्वप्न फल और अंगस्फुरण विद्या का प्रयोग करते हैं, वे श्रमण कहे जाने योग्य नहीं हैं ॥१३॥
Preceptors have prescribed-those who interpretate the signs, symbols and marks of body auspicious or inauspicious, the consequences of dreams and foreboding the throbbing of any part and portion of the body (अंगविद्या-अंग स्फुरणविद्या) they cannot be called as sages (श्रमण). (13)
इहजीवियं अणियमेत्ता, पब्भट्ठा समाहिजोएहिं ।
ते कामभोग - रसगिद्धा, उववज्जन्ति आसुरे काए ॥१४॥ जो वर्तमान जीवन में अनियमित रहकर समाधियोग से भ्रष्ट हो जाते हैं, ऐसे लोग काम-भोग और रसों में लोलुप आसुर काय में उत्पन्न होते हैं ॥१४॥
Those who leads their lives undisciplined in present life, slips from contemplation (समाधि-समाधियोग) and become desirous of worldly pleasures and amusements and indulged in tastes, will be born in Asura-Käya. (14)
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