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८१] अष्टम अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
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आमिषरूप भोगों से विषाद को प्राप्त तथा अपने हित और कल्याण में विपरीत बुद्धि का धारक, मन्द मति, मूर्ख जीव वैसे ही कर्मों से बँध जाता है, जैसे श्लेष्म (कफ) में मक्खी फँस जाती है ॥५॥
Deeply entangled in sorrow due to the blemish rejoicings and never fixes his thoughts on the soul's eternal welfare and benefit; such stupid, dull-minded being (man) ensnared by the bondage of karmas as a fly stuck up in saliva. (5)
दुपरिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं ।
अह सन्ति सुव्वया साहू, जे तरन्ति अतरं वणिया व ॥६॥ इन काम भोगों का परित्याग करना बहुत कठिन है। अधीर व्यक्ति इनका त्याग नहीं कर पाते। किन्तु जो शांत-सुव्रती साधु होते हैं वह इन काम-भोगों को उसी प्रकार सहजता से त्याग कर देते हैं; जैसे पोतवणिक सागर को पार कर जाते हैं ॥६॥
It is very difficult to renounce the worldly pleasures. Unsteady persons can never cast away them. But the calm, virtuous and pious ascetics easily renounce them as the merchants, who trade by ships, cross the ocean in a easy way. (6)
'समणा सु' एगे वयमाणा, पाणवह मिया अयाणन्ता ।
मन्दा नरयं गच्छन्ति, बाला पावियाहिं दिट्ठीहिं ॥७॥ कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि 'हम श्रमण हैं' किन्तु मिथ्यात्वग्रस्त मंद बुद्धि वाले पशु के समान अज्ञानी प्राणि-वध को हिंसा नहीं मानते, अपनी इस पापदृष्टि के कारण वे नरक गति में जाते हैं ॥७॥
- Though there are some persons who claim that 'we are sages' (श्रमण). But they are like beasts, superstitious, gripped by dis-faith and dull-minded do not accept that killing of living beings is violence, due to this sinful attitude they go to hell. (7)
'न हु पाणवहं अणुजाणे, मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं ।'
एवारिएहिं अक्खायं, जेहिं इमो साहुधम्मो पन्नत्तो ॥८॥ साधु धर्म की प्ररूपणा करने वाले आर्यपुरुषों-तीर्थंकरों ने ऐसा कहा है कि हिंसा (असत्य, चोरी, ब्रह्म, परिग्रह) की अनुमोदना करने वाले कभी भी सभी दुःखों से मुक्त नहीं हो सकते ॥८॥
Tirthamkaras, who have prescribed the ascetic code of conduct, said-that the persons beings), who even consent to killing, untruth, stealing, sexual intercourses and possessions in never be free from all miseries. (8)
पाणे य नाइवाएज्जा, से ‘समिए' ति वुच्चई ताई ।
तओ से पावयं कम्मं, निज्जाइ उदगं व थलाओ ॥९॥ जो साधक प्राणियों की हिंसा नहीं करता वह अपनी आत्मा और सभी जीवों का रक्षक तथा समितिवान् होता इससे पापकर्म उसी प्रकार दूर हो जाते हैं जिस प्रकार ऊँचे स्थान से जल बहकर दूर चला जाता है ॥९॥ Fan adept who does not even injure a living being, he becomes the protector of his own Fall other souls, he is called as circumspect (समित-समितिवान्). The sinful karmas go away I him like the water rushes away from a high place. (9)
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