SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३] सप्तम अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र - सप्तम अध्ययन : उरभ्रीय - पूर्वालोक प्रस्तुत अध्ययन का नाम उरभ्रीय है। यह नामकरण उरभ्र के दृष्टान्त के आधार पर हुआ है। समवायांग तथा उत्तराध्ययन नियुक्ति में इसका नाम 'उरब्भिज्ज' है किन्तु अनुयोगद्वार में इसे 'एलइज्ज' कहा गया है। प्रस्तुत अध्ययन की प्रथम गाथा में भी ‘एलयं' शब्द का प्रयोग हुआ है। उरभ्र और एलक-दोनों ही शब्द पर्यायवाची हैं। इनका अर्थ है-भेड का बच्चा-मेमना ! अतः दोनों ही नाम एक ही भाव को स्पष्ट करते हैं। श्रमण संस्कृति का मूल स्वर त्याग और विरक्ति है। विरक्ति कामभोगों से, इन्द्रिय-विषयों से। इन्द्रिय और इनसे प्राप्त होने वाला सुख स्थायी नहीं है, क्षणिक है। इस क्षणिकता को जानते हुए भी साधारण मानव अल्पकालिक सुख-भोग के लोभ को त्याग नहीं पाता। लेकिन इस अध्ययन द्वारा साधक को सावधान किया गया है कि तुच्छ एवं क्षणिक सुखों के प्रलोभन में वह अपनी बड़ी हानि न कर ले। इन्द्रयासक्ति के दुष्परिणामों तथा कटुफलों को बताने के लिए इस अध्ययन में ५ व्यावहारिक दृष्टान्त दिये गये हैं। दृष्टान्तों की मुख्यता के कारण यह अध्ययन दृष्टान्त प्रधान हो गया १. प्रथम दृष्टान्त-काम-भोग का कटुफल किसी धनी पुरुष के पास एक गाय और उसका बछड़ा था तथा उसने एक मेमना (भेड़ का बच्चा) भी पाल रखा था। वह गाय-बछड़े को सूखी घास देता और मेमने को खूब अच्छा पौष्टिक-स्वादिष्ट भोजन देता, स्नान कराता, शरीर पर प्यार से हाथ फिराता। कुछ ही दिनों में मेमना मोटा-ताजा हो गया। उसके शरीर पर मांस चढ़ गया, वह तुन्दिल हो गया। बछड़ा मालिक के इस भेदपूर्ण व्यवहार को देखता। एक दिन उसने माँ (गाय) से उदास-निराश स्वर में शिकायत की "माँ । देखो. मालिक मेमने को कितना प्यार करता है? कैसा पौष्टिक भोजन देता है? कछ ही दिनों में वह कैसा मोटा-ताजा हो गया है ? और हमें सूखी घास देता है; जबकि तुम तो मालिक को दूध भी देती हो। फिर भी वह हमारे साथ ऐसा व्यवहार क्यों करता है ?" अनुभवी गाय ने प्यार से बछड़े को दुलराते हुए कहा "वत्स ! यह मेमना आतुर-लक्षण है। इसकी मृत्यु निकट है। यह मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। इसे जो प्यार और अच्छा भोजन मिल रहा है, उसके पीछे मालिक का क्षुद्र स्वार्थ है। कुछ ही दिनों में इसका परिणाम तुम खुद ही देख लोगे।" कुछ दिन बीते। मालिक के घर पर मेहमान आ गये। बस, वही उस मेमने का अन्तिम दिन सिद्ध हुआ। स्वामी ने मेहमान की खातिरदारी के लिए उसे काटा और उसके मांस से अतिथि का सत्कार किया, उसे खिलाया और मालिक के परिवार ने भी खाया। निर्दयतापूर्वक मेमने के वध को देखकर बछड़ा घबड़ा गया। उसका रोम-रोम कांपने लगा। माँ के आंचल में अपना मुँह छिपाते हुए उसने कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002912
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year
Total Pages652
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy