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ती सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
षष्टम अध्ययन [६०
गवासं मणिकुंडलं, पसवो दासपोरुसं ।
सव्वमेयं चइत्ताणं, कामरूवी भविस्ससि ॥५॥ गाय-बैल-अश्व आदि पशु, मणि कुण्डल, दास तथा अन्य पुरुष-सेवक-इन सभी को अपनी इच्छा से छोड़ देने वाला व्यक्ति (परलोक में) कामरूपी-इच्छानुसार रूप बनाने वाला देव होगा ॥५॥
Cows, oxen, horses, jewels and ear-rings, cattle, slaves and servants-one who gives up all these possessions at his own will becomes the god in next birth, possessing the power of changing his form at will. (5)
थावरं जंगमं चेव, धणं धण्णं उवक्खरं ।
पच्चमाणस्स कम्मेहिं, नालं दुक्खाउ मोयणे ॥६॥ स्थावर-जंगम-चल-अचल संपत्ति, धन-धान्य, उपस्कर (घर का सामान-गृहोपकरण) भी कर्मों से दुःख पाते हुए प्राणी को दुःख से मुक्त कराने में समर्थ नहीं है ॥६॥
The immovable-movable possessions, wealth, furniture, store of grains, furniture and other articles of home-all are not strong enough to relieve from the miseries caused by the deeds of a being. (6)
अज्झत्थं सव्वओ सव्वं, दिस्स पाणे पियायए।
न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए ॥७॥ सभी प्राणियों को, सभी ओर से प्राप्त होने वाला, सभी प्रकार से अपनी आत्मा का सुख प्रिय है तथा उन्हें अपना आयुष्य प्रिय है। यह देख-सोचकर भय और वैर से विरत साधक किसी के भी प्राणों का हनन न करे ॥७॥
Everything that happens to some body, affects him personally, every being loves the joy of his own self and they love their lives. Knowing this fact, do not deprive them from their lives. (7)
आयाणं नरयं दिस्स नायएज्ज तणामवि ।
दोगुंछी अप्पणो पाए, दिन्नं भुंजेज्ज भोयणं ॥८॥ बिना दी हुई वस्तु लेना नरक-गमन का कारण है, यह जानकर साधक बिना दिया हुआ एक तिनका भी न ले। असंयम (या पाप) के प्रति अरुचि रखने वाला भिक्षु अपने पात्र में ही गृहस्थ द्वारा दिये गये आहार का भोजन करे ॥८॥
To take anything ungiven by its owner is the way going to hell; knowing this the adept should not take a blade of grass ungiven. The mendicant having aversion to un-restrain should eat the food given by a house-holder, that is put in his own alm-bowl. (8)
इहमेगे उ मन्नन्ति, अप्पच्चक्खाय पावगं ।
आयरियं विदित्ताणं, सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥९॥ कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि पापों का त्याग किये बिना ही केवल आर्य तत्त्वों के जान लेने मात्र से सभी दुःखों से विमुक्त हुआ जा सकता है ॥९॥
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