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* रूप अनाकार उपयोग सहित है, निष्ठितार्थ-कृतकृत्य है, निरेजन-निश्चल, स्थिर या निष्कम्प है,
नीरज-कर्म रूप रज से रहित है, निर्मल-पूर्वबद्ध कर्मों के मल से विनिर्मुक्त है, वितिमिर-अज्ञान * रूप अन्धकार से रहित है, परम शुद्ध-समस्त कर्मक्षय हो जाने पर परम आत्म-शुद्धियुक्त सिद्ध * भगवान भविष्य में शाश्वतकाल पर्यन्त (अपने स्वरूप में) संस्थित रहते हैं। *LO NATURE OF SIDDHAS
153. They, located at the edge of the universe (as mentioned in the preceding aphorism), are with a beginning (saadi) in context of the moment of attaining liberation but without an end (aparyavasit) in context of never to be reborn and without a body (asharira). They have a compact soul (jivaghan) or a soul having dense soul-spacepoints (when they abandon their body the void thus created is
compensated by compacting of soul-space-points; the space occupied ** by the soul-space-points is two-third of the space occupied by the
original body). They are with a manifest vivacity (sakar upayog) of knowledge and non-manifest vivacity (anakar upayog) of perception.
They are free of all needs (nishthitarth); free of any movement or * absolutely still (nirejan); beyond the reach of the dirt of karmas
(neeraj); free of the dirt of karmas accumulated in the past (nirmal); free of the darkness of ignorance (vitimir); and absolutely pure (param shuddha), having attained ultimate spiritual purity as a consequence to the complete shedding of all karmas. These perfect souls eternally remain in the aforesaid form.
१५४. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया, अपज्जवसिया जाव (असरीरा, जीवघणा, दंसणनाणोवउत्ता, निट्ठियट्ठा, निरेयणा, नीरया, हिम्मला, वितिमिरा, विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं) चिट्ठति ? ॐ गोयमा ! से जहाणामए बीयाणं अग्गिदड्डाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती ण भवइ, एवा मेव
सिद्धाणं कम्मबीए दड्ढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती न भवइ। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-ते *णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया, अपज्जवसिया जाव चिटुंति। * १५४. भगवन् ! आप किस कारण से कहते हैं कि वहाँ जो सिद्ध भगवान स्थित हैं,
वे सादि तथा अपर्यवसित होते हैं, यावत् (शरीररहित, घनरूप, दर्शनज्ञानोपयुक्त
निष्ठितार्थ-निरेजन, नीरज, निर्मल, वितिमिर, विशुद्ध-परम शुद्ध, शाश्वत कालपर्यन्त) * स्थिर रहते हैं ? 2 औपपातिकसूत्र
Aupapatik Sutra
CARRISPRINGPRISORIGINSPIRSPASPASPASPASPREPBAGPANGPRAKORMAOINION
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