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६१. तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा, णिसम्म हट्टतुट्ठ जाव हिययाओ उट्ठाए उट्ठित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी“सुक्खाए णं भंते! निग्गंथे पावयणे जाव किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं ?” एवं वंदित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूयाओ, तामेव दिसिं पडिगयाओ ।
• समवसरणं अधिकारं समत्तं •
६१. इसके बाद सुभद्रा आदि रानियाँ भी श्रमण भगवान महावीर के श्रीमुख से धर्म का श्रवण कर पूर्ण संतुष्ट हुईं, मन में आनन्द का अनुभव करती हुई अपने स्थान से उठीं। उठकर श्रमण भगवान महावीर की तीन बार आदक्षिण - प्रदक्षिणा की। भगवान को वन्दन - नमस्कार किया। वन्दन - नमस्कार कर इस प्रकार बोलीं- "हे भंते ! आपने निर्ग्रथ प्रवचन का कथन बहुत ही सुन्दर रूप में किया - वह सर्वश्रेष्ठ है.... इत्यादि सूत्र ५९ के अनुसार ) यों स्तुति कर वे भी अपने स्थान को वापस चली गईं।
• समवसरण अधिकार समाप्त •
61. After that, Subhadra and other queens also contented and blissful on hearing the sermon of Shraman Bhagavan, got up from their seats. They went around Shraman Bhagavan Mahavir three times clockwise and paid homage and obeisance. They then submitted-"Bhagavan ! You have expressed the Nirgranth tenets very eloquently... and so on (as in aphorism 59) up to... There is no other Shraman or Brahmin in present times who could expound such perfect religion (dharma), what to say of a better one." Saying so, they returned in the direction they came from.
END OF SAMAVASARAN ADHIKAR
समवसरण अधिकार
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