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(३) इन चार कारणों से जीव मनुष्य योनि में उत्पन्न होते हैं - (क) प्रकृतिभद्रता - स्वाभाविक भद्रता-भलापन, (ख) प्रकृति विनीतता - स्वाभाविक विनम्रता, (ग) सानुक्रोशता - दयालुता, करुणाशीलता, तथा (घ) अमत्सरता - ईर्ष्या का अभाव या गुणग्राहिता ।
(४) इन चार कारणों से जीव देव योनि में उत्पन्न होते हैं - (क) सरागसंयम - जिस चारित्र अवस्था में राग या कषाय की विद्यमानता रहती है, (ख) संयमासंयम - देशविरतिश्रावकधर्म, (ग) अकाम निर्जरा मोक्ष की अभिलाषा के बिना अथवा विवशतावश कष्ट सहना, तथा (घ) बालतप - मिथ्यात्वी या अज्ञान अवस्था में तप आदि की क्रियाएँ ।
तत्पश्चात् भगवान ' बताया- जो नरक में जाते हैं, वे वहाँ नैरयिकों जैसी तीव्र वेदना भोगते हैं । तिर्यंच योनि में गये हुए वहाँ होने वाले शारीरिक और मानसिक दुःख प्राप्त करते हैं ॥१॥
मनुष्य जीवन अनित्य है । उसमें व्याधि, वृद्धावस्था, मृत्यु और वेदना आदि प्रचुर कष्ट हैं। देवगति में देवलोक सम्बन्धी अनेक देव ऋद्धि और दैवी सुख प्राप्त करते हैं ॥ २ ॥
इस प्रकार भगवान ने नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवगति का कथन किया । पश्चात् सिद्ध, सिद्धावस्था एवं छह जीवनिकाय का विवेचन किया ॥ ३ ॥
जैसे- जीव बँधते हैं - कर्म बन्धन करते हैं, मुक्त होते हैं, परिक्लेश पाते हैं । कई अप्रतिबद्ध - अनासक्त व्यक्ति दुःखों का अन्त करते हैं, पीड़ा, वेदना व आकुलतापूर्ण चित्तयुक्त जीव दुःख - सागर को प्राप्त करते हैं, वैराग्य प्राप्त जीव कर्मों के दल को ध्वस्त करते हैं, रागपूर्वक किये गये कर्मों का फल पापपूर्ण होता है, कर्मों से सर्वथा रहित होकर जीव सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं - यह सब भगवान ने अच्छी प्रकार समझाया ॥४-५-६ ॥
(c) The souls worthy of attaining liberation (bhavya jiva) who are destined to be born just once as human beings (ekarchcha) are born as divine beings due to the residual karmas from past births. The divine dimensions (dev-lok) where they are born abound in wealth of paranormal abilities (riddhi) and happiness. They are far away (duragantik) from the world of humans and with a very long general life-span (chirasthitik).
These divine beings are endowed with great fortune... and so on up to... (here the description of divine beings as stated in aphorism 33 should be read) and long life-span. Their chests are adorned with divine necklaces. Their divine radiance spreads and beams in all
औपपातिकसूत्र
Aupapatik Sutra
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(198)
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