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________________ ००००००० रगं तिरिक्खजोणिं माणुसभावं च देवलोगं च । सिद्धे अ सिद्धवसहिं छज्जीवणियं परिकहेइ ॥ ३ ॥ जह जीवा बज्झति मुच्वंति जह य संकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं करंति केई अपडिबद्धा ॥४ ॥ अट्टा दुहट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेंति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं विहाडेंति ॥५॥ जह रागेण कडाणं कम्माणं पावगो फलविवागो । जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुर्वेति ॥ ६ ॥ (भगवान ने अपनी देशना में धर्माराधकों की सद्गति का निरूपण करते हुए कहा-) (ग) एकाच - जिनके एक ही मनुष्यभव धारण करना बाकी रहा है ऐसे भव्य जीव (मोक्षगामी प्राणी) वे पूर्व कर्मों के बाकी रहने से जिन देवलोकों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं वे देवलोक महर्द्धिक-विपुल ऋद्धियों से परिपूर्ण, अत्यन्त सुखमय दूरंगतिक - मनुष्य लोक आदि से अत्यन्त दूरवर्ती एवं चिरस्थितिक - सुदीर्घ आयुष्य स्थिति वाले होते हैं । (वहाँ देवरूप में उत्पन्न वे जीव) अत्यन्त ऋद्धि-सम्पन्न यावत्- ( शेष वर्णन सूत्र ३३ में वर्णित देवों के वर्णन समान समझना चाहिए) तथा चिरस्थितिक - दीर्घ आयुष्ययुक्त होते हैं । उनके वक्षःस्थल दिव्य हारों से सुशोभित हैं । वे अपनी दिव्य लेश्या द्वारा दशों दिशाओं को उद्योतित, प्रभासित करते हैं। वे कल्पोपग देवलोक (बारह देवलोक ) में देव - शय्या से युवा रूप में उत्पन्न होते हैं । वे वर्तमान में उत्तम देवगति के धारक तथा भविष्य में (मनुष्यभव धारण करके) भद्र - कल्याण या निर्वाण रूप अवस्था को प्राप्त करने वाले होते हैं । (वे आनन्द, प्रीति, परम सौमनस्य तथा हर्षयुक्त होते हैं) असाधारण रूपवान् होते हैं । (१) भगवान ने अपनी धर्मदेशना चालू रखे हुए आगे कहा- जीव चार कारणों से नरक योनि का आयुष्यबन्ध करते हैं, जिस कारण वे विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते हैं । वे चार कारण इस प्रकार हैं- (क) महाआरम्भ - घोर हिंसा, (ख) महापरिग्रह - अत्यधिक संग्रह व आसक्ति, (ग) पंचेन्द्रियवध - पाँच इन्द्रियों वाले प्राणियों की हिंसा, तथा (घ) माँस भक्षण | (२) इन चार कारणों से जीव तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होते हैं - (क) मायापूर्ण निकृति, (ख) अलीक वचन -असत्य भाषण, (ग) उत्कंचनता, तथा (घ) वंचनता - प्रतारणा या ठगी । समवसरण अधिकार Jain Education International ( 197 ) For Private & Personal Use Only Samavasaran Adhikar www.jainelibrary.org
SR No.002910
Book TitleAgam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2003
Total Pages440
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_aupapatik
File Size16 MB
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