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है। अतः व्यक्ति को आत्म-कल्याण साधने में ही जुटना चाहिए", इस प्रकार की भावना करना, (घ) संसारानुप्रेक्षा–“संसार में यह जीव कभी पिता, कभी पुत्र, कभी माता, कभी पुत्री, कभी भाई, कभी बहन, कभी पति, कभी पत्नी आदि अनेक सम्बन्ध बनाता हैकितने-कितने रूपों में जन्म लेता है", संसार के इस स्वरूप का पुनः-पुनः चिन्तन करना, वैराग्य जागृति हेतु विचाराभ्यास करना।
(iv) शुक्लध्यान-स्वरूप, लक्षण, आलम्बन तथा अनुप्रेक्षा के भेद से शुक्लध्यान चार प्रकार का है। इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद हैं। स्वरूप की दृष्टि से शुक्लध्यान के चार भेद इस प्रकार हैं-(क) पृथक्त्ववितर्क-सविचार-यहाँ वितर्क का अर्थ है श्रुतानुसारी विकल्प। पूर्वधर मुनि पूर्वश्रुत-विशिष्ट ज्ञान के अनुसार किसी एक द्रव्य का आलम्बन लेकर कभी द्रव्यार्थिकनय, कभी पर्यायार्थिकनय से, अर्थात् द्रव्य से पर्याय पर, पर्याय से द्रव्य पर ध्यान करता है। शब्द से अर्थ पर, अर्थ से शब्द पर तथा मन, वाणी एवं देह में एक-दूसरे की प्रवृत्ति पर संक्रमण करता है, अनेक अपेक्षाओं से चिन्तन करता है। ऐसा करना पृथक्त्ववितर्क-सविचार शुक्लध्यान है, (ख) एकत्ववितर्क-अविचार-इसका स्वरूप समझाने के लिए प्राचीन आचार्य एक उदाहरण देते हैं कि जिस प्रकार मंत्रसिद्ध गारुड़िक, सर्प विषग्रस्त शरीर के समस्त अवयवों से व्याप्त विषम विष को मंत्रबल से खींचकर काटे हुए स्थान पर विष को स्तम्भित कर देता है, उसी प्रकार पूर्वसूत्र का ज्ञाता पूर्वधर पूर्वश्रुतज्ञान के किसी एक परिणाम पर चित्त को स्थिर करता है। वह शब्द, अर्थ, मन, वाणी तथा काययोगों पर संक्रमण नहीं करता। ऐसा ध्यान एकत्ववितर्क-अविचार कहा जाता है। पहले भेद में पृथक्त्व है, विचारों का संक्रमण है, अतः वह सविचार है, दूसरे में विचारों का केन्द्रीकरण है, एकत्व है, इस अपेक्षा से उसकी अविचार संज्ञा है। एकत्ववितर्क-अविचार शुक्लध्यान में प्रथम ध्यान की अपेक्षा अधिक एकाग्रता होती है। यह ध्यान भी पूर्वधारक मुनि ही कर सकते हैं। इसके प्रभाव से चार घातिकर्मों का सम्पूर्ण क्षय हो जाता है और केवलज्ञान-दर्शन प्राप्त कर ध्याता-आत्मा सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाता है, (ग) सूक्ष्मक्रियअप्रतिपाति-केवली (जिन्होंने केवलज्ञान या सर्वज्ञत्व प्राप्त कर लिया हो) जब आयु के अन्त समय में योग-निरोध का क्रम प्रारम्भ करते हैं, तब वे पहले समस्त मनोयोग का निरोध करते हैं, फिर सम्पूर्ण वाग्योग का निरोध करते हैं, पश्चात् बादरकाय योग निरोध भी कर देते हैं। मात्र सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन किये होते हैं, उनमें श्वास-प्रश्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया ही अवशेष रह जाती है। वहाँ ध्यान से च्युत होने की कोई सम्भावना नहीं रहती। अतः उस अवस्था में सूक्ष्म क्रिया-अप्रतिपाति शुक्लध्यान होता है। यह तेरहवें गुणस्थान में होता है, (घ) समुच्छिन्नक्रिय-अनिवृत्ति-यह ध्यान अयोगकेवली नामक चतुर्दश गुणस्थान में
औपपातिकसूत्र
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Aupapatik Sutra
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