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स्वरूप की दृष्टि से धर्मध्यान के चार भेद इस प्रकार हैं-(क) आज्ञाविचय-तीर्थंकर आदि आप्त पुरुषों का वचन आज्ञा कहा जाता है। आप्त पुरुष वह है, जो राग, द्वेष आदि दोषों से मुक्त तथा सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ वीतराग देव की आज्ञा के सम्बन्ध में जो विचय-मनन, निदिध्यासन किया जाता है, वह आज्ञाविचय ध्यान है। इसका अभिप्राय है-वीतराग प्रभु की आज्ञा, प्ररूपणा या वचन के अनुरूप वस्तु-तत्त्व के चिन्तन में मन की एकाग्रता, (ख) अपायविचय-अपाय का अर्थ है दुःख। राग, द्वेष, विषय, कषाय आदि कारणों से दुःख की उत्पत्ति होती है। अतः राग, द्वेष, विषय, कषाय का अपचय, (विनाश) कर्मसम्बन्ध का विच्छेद और आत्म-समाधि की उपलब्धि जिस ध्यान में इन विषयों पर चिन्तन किया जाता है वह अपायविचय ध्यान है, (ग) विपाकविचय-विपाक का अर्थ कर्मफल है। कर्मों के स्वरूप, विपाक या फल पर चिन्तनधारा केन्द्रित करना विपाकविचय है, (घ) संस्थानविचय-लोक, द्वीप, समुद्र, स्वर्ग, नरक आदि के आकार-विषयक चिन्तन संस्थानविचय है।
धर्मध्यान के चार लक्षण बतलाये हैं, वे इस प्रकार हैं-(क) आज्ञारुचि-वीतराग प्रभु की आज्ञा की आराधना में, प्ररूपणा में अभिरुचि या श्रद्धा होना, (ख) निसर्गरुचि-नैसर्गिक रूप में-स्वभावतः धर्म में रुचि होना, (ग) उपदेशरुचि-साधु या ज्ञानी जनों के उपदेश से धर्म में रुचि होना अथवा धर्म का उपदेश सुनने में रुचि होना, (घ) सूत्ररुचि-सूत्रों-आगमों के प्रति रुचि या दृढ़ श्रद्धा होना।
धर्मध्यान के चार आलम्बन-(ध्यानरूपी शिखर पर चढ़ने के लिए जो सहायक बनते हैं वे आलम्बन) हैं, वे इस प्रकार हैं-(क) वाचना-आगम, ग्रन्थ आदि पढ़ना, (ख) पृच्छनाजिज्ञासु भाव से अपने मन में ऊहापोह करना, ज्ञानी जनों से समाधान पाने का प्रयत्न करना, (ग) परिवर्तना-जाने हुए, सीखे हुए ज्ञान की पुनः-पुनः आवृत्ति करना, (घ) धर्मकथा-धार्मिक उपदेशप्रद कथाओं, जीवनवृत्तों, प्रसंगों द्वारा आत्मानुशासन में प्रवृत्तिशील होना और दूसरों को प्रेरणा देना।
धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ-(सुविचारों की गहराई में उतरना) भावनाएँ हैं, वे इस प्रकार हैं-(क) अनित्यानुप्रेक्षा-"सुख, सम्पत्ति, वैभव, भोग, देह, यौवन, आरोग्य, जीवन, परिवार आदि सभी सांसारिक वस्तुएँ अनित्य हैं", इस प्रकार के विचारों का पुनः पुनः अभ्यास करना, (ख) अशरणानुप्रेक्षा-“जन्म, जरा, रोग, कष्ट, वेदना, मृत्यु आदि से पीड़ित संसार में जिनेश्वर देव कथित धर्म के अतिरिक्त जगत् में अन्य कोई शरणभूत रक्षक नहीं है", बार-बार इस प्रकार का चिन्तन करना, (ग) एकत्वानुप्रेक्षा-“मृत्यु, वेदना, पीड़ा, शोक, शुभ-अशुभ कर्म का फल इत्यादि जीव अकेला ही करता है तथा अकेला ही भोगता
समवसरण अधिकार
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Samavasaran Adhikar
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