SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अवज्ञा) नहीं करना, (२) अर्हत्-प्रज्ञप्त-धर्म की आशातना नहीं करना, (३) आचार्यों की आशातना नहीं करना, (४) उपाध्यायों की आशातना नहीं करना, (५) स्थविरों-ज्ञानवृद्ध, चारित्रवृद्ध, वयोवृद्ध श्रमणों की आशातना नहीं करना, (६) कुल की आशातना नहीं करना, (७) गण की आशातना नहीं करना, (८) संघ की आशातना नहीं करना, (९) क्रियावान की आशातना नहीं करना, (१०) सांभोगिक-जिसके साथ वन्दन, नमन, भोजन आदि पारस्परिक व्यवहार हों, उस गच्छ के श्रमण या समान आचार वाले श्रमण की आशातना नहीं करना, (११) मतिज्ञान की आशातना नहीं करना, (१२) श्रुतज्ञान की आशातना नहीं करना, (१३) अवधिज्ञान की आशातना नहीं करना, (१४) मनःपर्यवज्ञान की आशातना नहीं करना, (१५) केवलज्ञान की आशातना नहीं करना, (१६-३०) इन पन्द्रह की भक्ति, उपासना, बहुमान करना, (३१-४५) गुणों के प्रति तीव्र भावानुरागरूप पन्द्रह भेद तथा इन पन्द्रह की यश, प्रशस्ति एवं गुणकीर्तन करना। ये पन्द्रह भेद-इस प्रकार अनत्याशातनाविनय के कुल पैंतालीस भेद होते हैं। (iii) चारित्रविनय का स्वरूप क्या है ? चारित्रविनय पाँच प्रकार का है-(क) सामायिकचारित्रविनय, (ख) छेदोपस्थापनीयचारित्रविनय, (ग) परिहारविशुद्धि-चारित्रविनय, (घ) सूक्ष्मसंपरायचारित्रविनय, (ङ) यथाख्यातचारित्रविनय। यह चारित्रविनय है। (पाँच चारित्र के विशद् वर्णन हेतु सचित्र अनुयोगद्वारसूत्र, भाग २, सूत्र ४७२, पृष्ठ ३०७ से ३१५ देखें।) (iv) मनोविनय का स्वरूप क्या है ? मनोविनय दो प्रकार का है-(क) प्रशस्त मनोविनय, (ख) अप्रशस्त मनोविनय। अप्रशस्त मनोविनय क्या है ? जो मन (१) सावद्य-पापकर्मयुक्त, (२) सक्रिय-प्राणातिपात आदि आरम्भ क्रिया सहित, (३) कर्कश-कठोर, प्रेमभावरहित, (४) कुटुक-उद्वेजक-अपने लिए तथा औरों के लिए पीड़ाकारी, (५) निष्ठुर-दयारहित, (६) परुष-स्नेहरहित, (७) आस्रवकर-अशुभ कर्म और उपार्जन करने वाला है, (८) छेदकर-किसी के अंगों को काट देने, दुर्भाव रखने वाला, (९) भेदकर-नासिका आदि अंग काट डालने का मलिन भाव रखने वाला, असमाधि उत्पन्न करने वाला, (१०) परितापनकर-प्राणियों को संताप उत्पन्न करने के भाव रखने वाला, (११) उपद्रवणकर-मारणान्तिक कष्ट देने अथवा धन-सम्पत्ति हर लेने का बुरा विचार रखने वाला, (१२) भूतोपघातिक-जीवों का घात करने का दुर्भाव रखने वाला होता है, वह अप्रशस्त मन है। मन की वैसी स्थिति अप्रशस्त मनोविनय है। समवसरण अधिकार HODA (101) Samavasaran Adhikar BIGODBOYSODVODEODORIEODMore DHOOHTOENoore * * * * GTAOM GOLD Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002910
Book TitleAgam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2003
Total Pages440
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_aupapatik
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy