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प्रशस्त मनोविनय किसे कहते हैं ?
जैसे अप्रशस्त मनोविनय का वर्णन किया है, उसी के आधार पर प्रशस्त मनोविनय का स्वरूप समझना चाहिए । अप्रशस्त मन से विपरीत प्रशस्त मन होता है।
(v) वचनविनय को भी इन्हीं पदों से समझना चाहिए । अर्थात् अप्रशस्त वचनविनय तथा प्रशस्त वचनविनय के रूप में वचनविनय दो प्रकार का है। अप्रशस्त मन तथा प्रशस्त मन के जो विशेषण हैं, वे ही क्रमशः अप्रशस्त वचन तथा प्रशस्त वचन के साथ जोड़ देने चाहिए। यह वचनविनय का वर्णन है।
(vi) कायविनय का स्वरूप क्या है ?
कायविनय दो प्रकार का है - (क) प्रशस्त कायविनय, (ख) अप्रशस्त कायविनय ।
अप्रशस्त कायविनय का स्वरूप क्या है ?
अप्रशस्त कायविनय के सात भेद इस प्रकार कहे हैं - ( १ ) अनायुक्तगमन - जागरूकता या सावधानी के बिना चलना, (२) अनायुक्त स्थान - उपयोग बिना स्थित होना - ठहरना, खड़ा होना, (३) अनायुक्त निषीदन - बिना उपयोग बैठना, (४) अनायुक्त त्वग्वर्तन - बिना उपयोग बिछौने पर करवट आदि बदलना, (५) अनायुक्त उल्लंघन - बिना उपयोग कीचड़ आदि लाँघना, (६) अनायुक्त प्रोल्लंघन - बिना उपयोग बार- बार लाँघना, (७) अनायुक्त सर्वेन्द्रियकाययोग – योजनता - बिना उपयोग समस्त इन्द्रियों तथा काययोग की प्रवृत्ति करना । यह अप्रशस्त कायविनय है।
प्रशस्त कायविनय क्या है ?
प्रशस्त कायविनय का स्वरूप अप्रशस्त कायविनय की तरह समझ लेना चाहिए । अर्थात् अप्रशस्त कायविनय में अनुपयुक्त अवस्था में होने वाली काययोग की क्रियाएँ रोकी जाती हैं तथा प्रशस्त कायविनय में शरीर सम्बन्धी सभी क्रियाएँ उपयोगपूर्वक की जाती हैं । यह प्रशस्त कायविनय है । इस प्रकार यह कायविनय का वर्णन है ।
(vii) लोकोपचारविनय में लोकोपचार का विनय का स्वरूप क्या है ?
(लोक - व्यवहार का साधन ) लोकोपचारविनय सात प्रकार का है, जैसे(१) अभ्यासवर्तिता - गुरुजनों व सत्पुरुषों के समीप स्थिर होकर बैठना, (२) परच्छन्दानुवर्तिता - गुरुजनों आदि के इच्छानुरूप प्रवृत्ति करना, (३) कार्य हेतु - विद्या आदि प्राप्त करने हेतु अथवा जिनसे विद्या प्राप्त की, उनकी सेवा-परिचर्या करना, (४) कृत
औपपातिकसूत्र
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