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(iv) से किं तं विवित्तसयणाससेवणया ?
विवित्तसयणासणसेवणया जं णं आरामेसु, उज्जाणेसु, देवकुलेसु, सहासु, पवासु, पणियगिहेसु, पणियसालासु, इत्थी - पसु -पंडगसंसत्तविरहियासु बसहीसु फासुएसणिज्जं पीठ - फलग - सेज्जा - संथारगं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ।
सेतं पडिलीणया, से तं बाहिरए तवे ।
३०. (छ) प्रतिसंलीनता तप क्या है ?
(इन्द्रिय, कषाय आदि बाह्य भावों का त्याग कर आत्मा में लीन होना - प्रतिसंलीनता है ।) प्रतिसंलीनता चार प्रकार की है - ( १ ) इन्द्रिय- प्रतिसंलीनता - इन्द्रियों की चेष्टाओं का निरोध या संयम, (२) कषाय- प्रतिसंलीनता - क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों या आवेगों का निरोध, (३) योग - प्रतिसंलीनता - कायिक, वाचिक तथा मानसिक प्रवृत्तियों का निग्रह, (४) विविक्त - शयनासन — सेवनता - एकान्त स्थान में निवास करना ।
(i) इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता क्या है - कितने प्रकार की है ?
इन्द्रिय- प्रतिसंलीनता पाँच प्रकार की है - ( १ ) श्रोत्रेन्द्रिय - विषय - प्रचार - निरोध - मन को तथा श्रोत्रेन्द्रिय को शब्द विषय में प्रवृत्ति करने से रोकना अथवा श्रोत्रेन्द्रिय को शब्द रूप में प्राप्त हुए-अप्रिय, अनुकूल-प्रतिकूल विषयों में राग-द्वेष नहीं करना, (२) चक्षुरिन्द्रियविषय-प्रचार-निरोध-नेत्रों के विषय-रूप में प्रवृत्ति को रोकना तथा प्रिय-अप्रिय, सुन्दरअसुन्दर रूपात्मक विषयों में राग-द्वेष का नहीं करना, (३) घ्राणेन्द्रिय-विषय-प्रचारनिरोध - नासिका के विषय - 'गन्ध' में प्रवृत्ति को रोकना तथा राग-द्वेष को रोकना, (४) जिह्वेन्द्रिय - विषय - प्रचार-निरोध - जीभ के विषयों में प्रवृत्ति को रोकना अथवा स्वादुअस्वादु रसात्मक विषयों, पदार्थों में राग-द्वेष नहीं करना, (५) स्पर्शेन्द्रिय - विषय - प्रचारनिरोध - त्वचा (स्पर्श) के विषय में प्रवृत्ति को रोकना अथवा स्पर्शेन्द्रिय को प्राप्त सुखदुःखात्मक, अनुकूल-प्रतिकूल विषयों में राग-द्वेष से विरक्त रहना ।
यह इन्द्रिय- प्रतिसंलीनता का विवेचन है ।
(ii) कषाय- प्रतिसंलीनता क्या है ?
कषाय- प्रतिसंलीनता चार प्रकार की कही है । वह इस प्रकार है - (१) क्रोध के उदय का निरोध-क्रोध को नहीं उठने देना, अथवा उदय-प्राप्त क्रोध को विफल बनाना, (२) मान के उदय का निरोध- अहंकार को नहीं उठने देना अथवा उदय - प्राप्त अहंकार को विफलनिष्प्रभावी बनाना, (३) माया के उदय का निरोध - माया को उभार में नहीं आने देना अथवा
औपपातिकसूत्र
Aupapatik Sutra
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