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उदय-प्राप्त माया को विफल - प्रभावरहित बना देना, (४) लोभ के उदय का निरोध-लोभ को नहीं उभरने देना अथवा उदय-प्राप्त लोभ को निष्प्रभावी बना देना ।
यह कषाय- प्रतिसंलीनता का विवेचन है।
(iii) योग - प्रतिसंलीनता क्या है ?
योग - प्रतिसंलीनता तीन प्रकार की है - ( 9 ) मनोयोग - प्रतिसंलीनता, (२) वाग्योगप्रतिसंलीनता, (३) काययोग-प्रतिसंलीनता ।
(१) मनोयोग - प्रतिसंलीनता क्या है ?
(क) अकुशल - अशुभ - मन का निरोध करना, तथा (ख) कुशल - शुभ - सद्विचारपूर्ण मन का प्रवर्तन करना मनोयोग-प्रतिसंलीनता है ।
(२) बाग्योग - प्रतिसंलीनता क्या है ?
(क) अकुशल - अशुभ वचन योग का निरोध करना, दुर्वचन नहीं बोलना, तथा (ख) कुशल वचन - सद्वचन बोलने का अभ्यास करना वाग्योग-प्रतिसंलीनता है।
(३) काययोग - प्रतिसंलीनता क्या है ?
हाथ, पैर आदि को सुसमाहित-सुस्थिर कर, कछुए के समान अपनी इन्द्रियों को विषयों की प्रवृत्ति से गुप्त कर, सारे शरीर को संवृत्त कर - सुस्थिर होना काययोग - प्रतिसंलीनता है। यह योग - प्रतिसंलीनता का विवेचन है ।
(iv) विविक्त - शय्यासन सेवनता क्या है ?
स्त्री- पुरुष - नपुंसकों से रहित स्थान, . जैसे- आराम - (पुष्प-प्रधान बगीचा पुष्प - वाटिका), उद्यान - फूल-फल सहित बड़े-बड़े वृक्षों से युक्त बगीचा, देवकुल- देव - मन्दिर, छतरियाँ, सभा- लोगों के बैठने या विचार-विमर्श हेतु एकत्र होने का स्थान, प्रपा - जल पिलाने का स्थान, प्याऊ, पणित-गृह-बर्तन आदि क्रय-विक्रय की वस्तुएँ रखने के घर - गोदाम, पणितशाला - क्रय-विक्रय करने वाले लोगों के ठहरने योग्य स्थान, वसति - सामान्य गृहस्थ जनों के घरों में, प्रासुक - निर्जीव, अचित्त, एषणीय-संयमी पुरुषों द्वारा ग्रहण करने योग्य, निर्दोष पीठ, फलक - काष्ठपट्ट, शय्या - पैर फैलाकर सोया जा सके, ऐसा बिछौना, तृण, घास आदि का संस्तारक - कुछ छोटा बिछौना प्राप्त कर विचरना विविक्त - शय्यासन - सेवनता है ।
यह प्रतिसंलीनता का विवेचन है, इसके साथ बाह्य तप का वर्णन पूर्ण होता है । ( श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी अनगार उपर्युक्त विविध प्रकार के बाह्य तप का अनुष्ठान करते थे।
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Samavasaran Adhikar
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