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卐 जिन नरकभूमियों में शीत वेदना है, वहाँ की शीतलता भी असाधारण है। शीत-प्रधान नरकभूमि में से यदि
किसी नारक को लाकर यहाँ बर्फ पर लिटा दिया जाये, ऊपर से बर्फ ढक दिया जाये और पार्श्व भागों में भी फ़
बर्फ रख दिया जाये तो उसे बहुत राहत का अनुभव होगा। वह ऐसी विश्रान्ति का अनुभव करेगा कि उसे निद्रा ॐ आ जायेगी। इससे वहाँ की शीतलता की थोड़ी-बहुत कल्पना की जा सकती है।
इसी प्रकार की क्षेत्रजनित अन्य वेदनाएँ भी वहाँ असामान्य उत्कट होती हैं, जिनका उल्लेख पूर्व में किया गया है।
परमाधार्मिक देवों द्वारा दिये जाने वाले घोर कष्टों का कथन भी सूत्र २५-३० में किया गया है। ज्यों ही कोई पापी जीव नरक में उत्पन्न होता है, ये असुर उसे नाना प्रकार की यातनाएँ देने के लिए सन्नद्ध हो जाते हैं
और जब तक नारक जीव अपनी लम्बी आय परी नहीं कर लेता तब तक वे निरन्तर उसे सताते ही रहते हैं। किन्तु परमाधामियों द्वारा दी जाने वाली वेदना तीसरे नरक तक ही होती है, क्योंकि ये तीसरे नरक से आगे
नहीं जाते। चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें नरक में दो निमित्तों से ही वेदना होती है-भूमिजनित और में परस्परजनित। जिसका कथन सूत्र ३१-३२ में किया गया है।
___ नारकों को भव के निमित्त से वैक्रियलब्धि प्राप्त होती है। किन्तु वह लब्धि स्वयं उनके लिए और साथ ही म अन्य नारकों के लिए यातना का ही कारण बनती है। वैक्रियलब्धि से दुःखों से बचने के लिए वे जो शरीर
निर्मित करते हैं, उससे उन्हें अधिक दुःख की ही प्राप्ति होती है। भला सोचते हैं, पर बुरा होता है। इसके ॐ 卐 अतिरिक्त जैसे यहाँ श्वान एक-दूसरे को सहन नहीं करता, एक-दूसरे को देखते ही गुर्राता है, झपटता है, 5
आक्रमण करता है, काटता-नोंचता है; उसी प्रकार नारक एक-दूसरे को देखते ही उस पर आक्रमण करते हैं,
विविध प्रकार के शस्त्रों से-जो वैक्रियशक्ति से बने होते हैं-हमला करते हैं। शरीर का छेदन-भेदन करते हैं। ऊ अंगोपांगों को काट डालते हैं। इतना त्रास देते हैं जो हमारी कल्पना से भी बाहर है। यह वेदना सभी नरकभूमियों में भोगनी पड़ती है।
नरकों का वर्णन जानने के लिए जिज्ञासु जनों को सूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम श्रुत स्कंध का 'नरक-विभक्ति' के नामक पंचम अध्ययन तथा बृहत्संग्रहणी ग्रन्थ का नरक द्वार भी देखना चाहिए।
Elaboration--It has been mentioned earlier, there are three types of troubles in the hells--(1) The troublecaused by the nature of the ground, (2) The troubles caused by demon gods, (3) The troubles caused by the hellish beings mutually. The trouble caused by the area is due to the nature of its land as it is either extremely hot or extremely cold. Such trouble has been narrated in aphorisms 23 and 24. In the hells of upper
region, there is dreadful trouble due to burning heat while in the hells of 41 the lower region; there is trouble due to icy cold land. The heat of the 5 hell is comparable with burning embers or dreadfully burning earth.
This comparison is made only to make one understand the heat there. In fact the heat in such hells is many times more than the heat of such embers or fire. The heat is so severe that it is capable of melting an iron ball of the size of Meru mountain.
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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
(54)
Shri Prashna Vyakaran Sutra
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