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________________ )) )) ) ) ) ) )) ) ) ) 555555555555555555555555555555555555 होनी चाहिये, कैसी साधना होनी चाहिये इसका विस्तारपूर्वक वर्णन अपरिग्रहव्रत को पांचों भावनाओं में किया म है। वे भावनाएँ इस प्रकार हैं-(१) श्रोत्रेन्द्रियसंवर, (२) चक्षुरिन्द्रियसंवर, (३) घ्राणेन्द्रियसंवर, (४) रसनेन्द्रियसंवर, और (५) स्पर्शनेन्द्रियसंवर। . शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श, ये इन्द्रियों के विषय हैं। प्रत्येक विषय अनुभूति की दृष्टि से दो प्रकार का है-मनोज्ञ और अमनोज्ञ। प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषय को ग्रहण करती है तब वह विषय सामान्यरूप ही होता है। किन्तु उस ग्रहण के साथ ही आत्मा में विद्यमान संज्ञा उसमें प्रियता या अप्रियता का रंग घोल देती है। जो विषय प्रिय ॐ प्रतीत होता है वह मनोज्ञ कहलाता है और जो अनुभूत होता है वह अमनोज्ञ प्रतीत होता है। (१) श्रोत्रेन्द्रियसंवर भावना-परिग्रह का अन्तरंग और बहिरंगरूप से परमत्यागी साधु जब अपनी कोई भी + प्रवृत्ति करता है तो उसके कानों में कई प्रकार के शब्द आकर टकराते हैं। उनमें से कई कर्णप्रिय होते हैं, कई : के कर्णकटु भी। ये सारे ही शब्द राग और द्वेष के कारण हैं, जो साधक के जीवन को अन्तरंग परिग्रह के गर्त में : E डाल देते हैं। इसीलिए शास्त्रकार ने कुछ विशेष मनोज्ञ शब्दों के नाम गिनाकर अन्त में उन्हीं प्रकार के शब्दों के ॐ कर्णगोचर होने पर उनके प्रति राग, आसक्ति, गृद्धि, लोभ, मोह, न्योछावर, तुष्टि स्मरण और मनन से इस श्रोत्रेन्द्रियसंवर भावना के प्रकाश में शीघ्र बचने का निर्देश किया है। इसी प्रकार अमनोज्ञ शब्द, कर्कश, कर्णकटु, कठोर, असह्य और मर्मच्छेदी लगते हैं यदि साधक उन्हें सुनकर कोई द्वेषात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करता म है तो वह द्वेष साधक के जीवन को अन्तरंग परिग्रह की खाई में धकेल देता है। इसीलिए शास्त्रकार ने कुछ । खास-खास अमनोज्ञ शब्दों के नाम गिनाकर अन्त में उन्हीं की तरह के कर्णकटु शब्दों के कर्णगोचर होने पर ॐ उनके प्रति रोष, अवज्ञा, निन्दा, खीज या चिढ़, छेदन, भेदन, ताड़न-तर्जन, वध, द्वेष, घृणा आदि से बचने का , फ्र निर्देश किया है। निष्कर्ष यह है कि साधु को अपने मन को इस भावना की ऐसी शिक्षा देनी चाहिए, ताकि कर्णप्रिय मनोज्ञ शब्द कान में पड़ते ही वह उनपर मोहित न हो जाये और कर्णकटु अमनोज्ञ शब्द कान में पड़ते ही वह रुष्ट न हो। तभी अपरिग्रही साधु समभाव में स्थिर होकर जितेन्द्रिय और संयतेन्द्रिय बनेगा। (२) चक्षुरिन्द्रियसंवर भावना-अपरिग्रहव्रती साधु जब अपनी दैनिक दिनचर्या में प्रवृत्त होता है तो कई रूप 5 आँखों के सामने आते हैं, उनमें कुछ सचेतन प्राणी के भी होते हैं, कुछ अचेतन पदार्थों के भी। जैसे मनोज्ञ रुचिकर तथा मनोमोहक पदार्थ सामने आए तो उस समय यदि साधु उस सुन्दररूप या चेहरे आदि को देखकर ऊ मन में रागभाव या मोह लाता है तो साधक अन्तरंग परिग्रह के जाल में फंस जाता है। इसीलिए शास्त्रकार ने कुछ खास-खास मनोज्ञ रूपों के नाम गिनाकर अन्त में उसी प्रकार के अन्यान्य रूपों के दृष्टिगोचर होने पर उन फ़ पर आसक्ति, अनुराग, गृद्धि, लोभ, मोह, न्योच्छावर, तुष्टि, स्मरण और मनन से शीघ्र बचने का ॥ चक्षुरिन्द्रियसंवर भावना के प्रकाश में निर्देश किया है। इसी प्रकार इनके ठीक विपरीत अमनोज्ञ रूपों को देखकर यदि साधक एकदम रुष्ट हो जाता है तो यहीं साधक अन्तरंग परिग्रह की चपेट में आकर द्वेषरूपी शत्रु से दब जाता है। इसीलिए शास्त्रकार ने कुछ खास-खास अमनोज्ञ रूपों के नाम गिनाकर अन्त में उसी प्रकार के फ़ अन्यान्य अमनोज्ञ रूपों के दृष्टिगोचर होने पर अपनी मनोवृत्ति पर नियंत्रण रखने का निर्देश दिया है। ) )) ) ) ) ) ) ) ) ) ) श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र (432) Shri Prashna Vyakaran Sutra 卐 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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