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१७०. इस (पूर्वोक्त) प्रकार परिग्रह विरमण रूप पाँचवाँ संवरद्वार सम्यक् प्रकार से मन, वचन और काय से परिरक्षित पाँच भावनाओं से संवृत्त किया जाये तो सुरक्षित होता है । धृतिमान और बुद्धिमान सुसाधु को यह योग जीवनपर्यन्त निरन्तर पालनीय है । यह आस्रव रहित, निर्दोष, मिथ्यात्व आदि छिद्रों से रहित होने के कारण अपरिस्रावी, संक्लेशहीन, शुद्ध और समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है। इस प्रकार यह पाँचवाँ संवरद्वार उचित समय पर काया से स्पर्श किया हुआ - अमल में लाया हुआ, पालन किया हुआ, अतिचाररहित शुद्ध किया हुआ, अन्त तक पार लगाया हुआ, वचन द्वारा कीर्तित किया हुआ, अनुपालित तथा तीर्थंकरों की आज्ञा के अनुसार आधारित होता है।
ज्ञात कुल में उत्पन्न श्रमण शिरोमणि भगवान ने ऐसा निरूपित किया है । युक्तिपूर्वक समझाया है। यह लोक में प्रसिद्ध, समस्त नय और प्रमाणों से सिद्ध और भवस्थ सिद्धों-अरिहन्तों की आज्ञा बतलाया गया है, भलीभांति उपदिष्ट प्रशस्त ।
रूप
यह पांचवा संवरद्वार पूर्ण हुआ। ऐसा मैं (श्री सुधर्मा स्वामी) कहता हूँ ।
170. In case the vow of non-attachment for possessions-the fifth gateway of Samvar is fully guarded mentally, vocally and physically and is practiced in the form of five sentiments as above-mentioned, then it remains well protected. A monk who is perseverant and has sense of discrimination should practice it continuously throughout his life. It stops inflow of Karmas. It is spotless. It is free from gaps of ignorance. So it is devoid of asravas and troubles. It is pure and it is propounded by all the Tirthankars. Thus this fifth gateway of Samvar is experienced and practiced faultlessly in the conduct upto its completion. It is appreciated in words. It is practiced according to the code in the scriptures.
It is popounded and logically explained by the omniscient lord who had experienced it. It is famous and well established. It is said to be the excellent order of Arihants. It has been taught in a discreet manner.
Thus this noble gateway of Samvar has been concluded. So I (Sudharma) Say.
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विवेचन : पूर्वोक्त सूत्रों में अपरिग्रह महाव्रत का सम्यक रूप से पालन करने के लिये अपरिग्रही साधक की आवश्यकतानुसार पाँचों इन्द्रियों के विविध विषयों को ग्रहण करते समय क्या दृष्टि होनी चाहिये, क्या भावना 5 वाचनान्तर में उपलब्ध पाठ इस प्रकार है - " एयाणि पंचावि सुव्वय - महव्वयाणि लोगधिइकरणाणि, सुयसागर - देसियाणि संजमसीलव्वयसच्चज्जवमयाणि णरयतिरियदेवमणुयगइविवज्जयाणि सव्वजिणसासणाणि कम्मरय - वियारयाणि भवसयविमोयगाणि दुक्खसयविणासगाणि सुक्खसयपवत्तयाणि कापुरिससुदुरुत्तराणि सप्पुरिसजण - तीरियाणि णिव्वाणगमणजाणाणि कहियाणि सग्गपवायगाणि पंचावि महव्वयाणि कहियाणि ।”
श्रु.२,
पंचम अध्ययन : परिग्रहत्याग संवर
Sh.2, Fifth Chapter: Discar... Samvar
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