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विवेचन : प्रस्तुत पाठ में शास्त्रकार ने अपरिग्रही साधु के लिये साफ-साफ कहा है कि ग्राम, आकर, नगर, 卐 निगम आदि किसी भी बस्ती में कोई भी वस्तु पड़ी हो तो उसे ग्रहण नहीं करनी चाहिए। इतना ही नहीं, साधु का 5
मन इस प्रकार सधा हुआ होना चाहिए कि उसे ऐसे किसी पदार्थ को ग्रहण करने की इच्छा ही न हो ! ग्रहण न . फ़ करना एक बात है, वह साधारण साधना का फल है, किन्तु ग्रहण करने की अभिलाषा ही उत्पन्न न होना उच्च 5
साधना का फल है। मुनि का मन इतना समभावी, मूर्छाविहीन एवं नियंत्रित रहे कि वह किसी भी वस्तु को ॐ कहीं भी पड़ी देखकर न ललचाये। जो स्वर्ण, रजत, मणि, मोती आदि बहुमूल्य वस्तुएँ अथवा अल्प मूल्य होने के
पर भी सुखकर-आरामदेह वस्तुएँ दूसरे को मन में लालच उत्पन्न करती हैं, मुनि उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देखे। 5 उसे ऐसी वस्तुओं को ग्रहण करने की अभिलाषा ही न हो।
Elaboration-It has been clarly stated in this aphorism that a monk should not pick up any article lying in a village, town, colony and the like as he has discarded all the attachment for possessions. Even the m the monk should be trained in such a manner that he should not have any desire for them. Not to have a thing is the result of general practice of monkhood but not to have any desire even in the mind for it, is the si result of ascetic practice of a high order. The mind of a monk should be in such a state of equanimity, control and free from attachment that he should not be greedy to have anything lying at any place, he should ignore it. He should not have even the slightest desire to have it. Live flowers, fruit, root and the like are the places helpful in generating mobile living beings. So it is not desirable that a monk should destroy them. So he always avoids to have such things. सन्निधि-त्याग DISCARDING COLLECTION OF POSSESSION
१५७. जं पि य ओयणकुम्मास-गंज-तप्पण-मंथु-भुज्जिय-पलल-सूव-सक्कुलि-वेढिमॐ वरसरकचुण्ण-कोसग-पिंड-सिहरिणि-वट्ट-मोयग-खीर-दहि-सप्पि-णवणीय-तेल्ल-गुड
खंड-मच्छंडिय-महु-मज्ज-मंस-खज्जग-वंजण-विहिमाइयं पणीयं उवस्सए परघरे व रण्णे ण कप्पइ * तं वि सण्ििहं काउं सुविहियाणं।
१५७. और जो भी पके हुये चावल, उड़द या थोड़े उबाले मूंग आदि गंज-एक प्रकार का भोज्य ॐ पदार्थ, तर्पण-सत्तू, मंथु-बोर आदि का चूर्ण-आटा, पूँजी हुई धानी-लाई, पलल-तिल के फूलों का ++ पिष्ट, सूप-दाल, शष्कुली-तिलपपड़ी, वेष्टिम-जलेबी, इमरती आदि, वरसरक नामक भोज्य वस्तु,
चूर्णकोश-खाद्य विशेष, गुड़ आदि का पिण्ड, शिखरिणी-दही में शक्कर आदि मिलाकर बनाया गया भोज्य-श्रीखंड, वट्ट-वड़ा, मोदक-लड्डू, दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, खाजा, गुड़, खाँड़, मिश्री, मधु, 5
मद्य, माँस और अनेक प्रकार के व्यंजन-शाक, छाछ आदि वस्तुओं का उपाश्रय में, अन्य किसी के घर ॐ में अथवा अटवी में सुविहित-परिग्रहत्यागी, सुव्रती साधुओं को संचय करना नहीं कल्पता है।
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|श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
(398)
Shri Prashna Vyakaran Sutra
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