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__ अपरिग्रही के लिये अकल्पनीय-अनाचरणीय PROHIBITIONS FOR THE DETACHED
१५६. जत्थ ण कप्पइ गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासमगयं च किंचि अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा तसथावरकायदव्वजायं मणसा वि परिघेत्तुं, ण हिरण्णसुवण्णखेत्तवत्थु, ण दासी-दास-भयग-पेस-हय-गय-गवेलगं व, ण जाण-जुग्ग-सयणासणाइ, ण छत्तगं, ण कुंडिया, ण उवाणहा, ण पेहुण-वीयण-तालियंटगा, ण यावि अय-तउय-तंब-सीसग-कंस-रययजायरूव-मणिमुत्ताहार-पुडग-संख-दंत-मणि-सिंग-सेल-काय-वरचेल-चम्मपत्ताई महरिहाई, परस्स अज्झोववाय-लोहजणणाई परियड्ढेउं गुणवओ, ण यावि पुष्फ-फल-कंद-मूलाइयाई सणसत्तरसाइं सव्वधण्णाई तिहिं वि जोगेहिं परिघेत्तुं ओसह-भेसज्ज-भोयणट्ठयाए संजएणं।
किं कारणं?
अपरिमियणाणदंसणधरेहिं सील-गुण-विणय-तव-संजमणायगेहिं तित्थयरेहिं सबजगज्जीव+ वच्छलेहिं तिलोयमहिएहिं जिणवरिंदेहिं एस जोणी जंगमाण दिट्ठा। ण कप्पइ जोणिसमुच्छेओ त्ति तेण ॐ वज्जंति समणसीहा।
१५६. जिस अपरिग्रह वृत्ति रूप अन्तिम संवर द्वार में गाँव, खान, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, 卐 बन्दरगाह, पत्तन अथवा आश्रम में रहा हुआ कोई भी पदार्थ हो, चाहे वह अल्पमूल्य वाला हो या '
बहुमूल्य हो, प्रमाण में छोटा हो अथवा बड़ा हो, वह भले त्रसकाय-शंख आदि हो या स्थावरकाय-रत्न
आदि हो, उस द्रव्यसमूह को मन से भी ग्रहण करना उचित नहीं है, अर्थात् उसे ग्रहण करने की इच्छा ___ करना भी योग्य नहीं है। चाँदी, सोना, क्षेत्र (खुली भूमि), वास्तु (मकान-दुकान आदि) भी ग्रहण करना॥
नहीं कल्पता। दासी, दास, भृत्य-नियत वृत्ति पाने वाला सेवक, प्रेष्य-सन्देश ले जाने वाला सेवक, घोड़ा, हाथी, बैल आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता। यान-रथ, गाड़ी आदि, युग्य-डोली आदि, 5 शयन आदि और छत्र-छाता आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, न कमण्डलु, न जूता, न मोरपीछी, न पंखा, न ताड़ का पंखा-ग्रहण करना कल्पता है तथा लोहा, राँगा, ताँबा, सीसा, काँसा, चाँदी, सोना, मणि और मोती का आधार सीपसम्पुट, शंख, उत्तम दाँत, सींग, शैल-पाषाण (या पाठान्तर के अनुसार
अर्थात श्लेष द्रव्य). उत्तम काँच. वस्त्र और चर्मपात्र-इन सबको भी ग्रहण करना उचित नहीं है। ये सब बहुमूल्य वस्तुयें दूसरे के मन में ग्रहण करने की इच्छा उत्पन्न करती हैं, इसी तरह की बहुमूल्य वस्तुओं का ग्रहण करना, झपट लेना अथवा उसकी वृद्धि या रक्षा करना मूल गुण आदि से सुशोभित अपरिग्रही साधु के लिये उचित नहीं है। और न ही संयमी साधु को औषध, भैषज्य (अनेक प्रकार की 9
वस्तुओं से बनी हुई दवा) तथा भोज्य के लिये फूल, फल, कंद और मूल आदि को, तथा जिनमें १७वां ॐ धान्य सन है, ऐसे १७ प्रकार के सभी धान्यों-अनाजों का तीन योग-मन वचन काया से ग्रहण करना ठीक नहीं है।
ग्रहण नहीं करने का क्या कारण है ?
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Shri Prashna Vyakaran Sutra
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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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