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5555555555555555555555555555558 म १७. असंयम के १७ भेद हैं। वे इस प्रकार हैं- (१) पृथ्वीकाय-असंयम, (२) अप्काय-असंयम,
(३) तेजस्काय-असंयम, (४) वायुकाय-असंयम, (५) वनस्पतिकाय-असंयम, (६) द्वीन्द्रिय-असंयम, ॐ (७) त्रीन्द्रिय-असंयम, (८) चतुरिन्द्रिय-असंयम, (९) पंचेन्द्रिय-असंयम, (१०) अजीव-असंयम, क (११) प्रेक्षा-असंयम, (१२) उपेक्षा-असंयम, (१३) परिस्थापनिका-असंयम, (१४) अप्रमार्जन-असंयम, (१५) मन-असंयम, (५६) वचन-असंयम, और (१७) काय-असंयम।
पृथ्वीकाय आदि नौ प्रकार के जीवों की यतना न करना, इनका आरम्भ करना और मूल्यवान ॐ वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि अजीव वस्तुओं को ग्रहण करना, जीव-अजीव-असंयम है। धर्मोपकरणों की #
यथाकाल यथाविधि प्रतिलेखना न करना प्रेक्षा-असंयम है। संयम-कार्यों में प्रवृत्ति न करना और - असंयमयुक्त कार्य में प्रवृत्ति करना उपेक्षा-असंयम है। मल-मूत्र आदि का शास्त्रोक्त विधि के अनुसार ॐ प्रतिष्ठापन न करना-त्यागना परिस्थापनिका-असंयम है। वस्त्र-पात्र आदि उपधि का विधिपूर्वक
प्रमार्जन नहीं करना अप्रमार्जन-असंयम है। मन को प्रशस्त चिन्तन में नहीं लगाना या अप्रशस्त चिन्तन में लगाना मानसिक-असंयम है। अप्रशस्त या मिथ्या अथवा अर्ध-मिथ्या वाणी का प्रयोग करना वचन-असंयम है और काय से सावध व्यापार करना काय-असंयम है। १८. अब्रह्म-अब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार ये हैं
ओरालियं च दिव्यं, मण-वय-कायाण करण-जोगेहिं।
अणुमोयण- कारावण- करणेणद्वारसाऽबंभं॥ ___ अर्थात् औदारिक शरीर द्वारा मन, वचन और काया से काम भोग का सेवन करना, कराना और अनुमोदना करना ये ९ औदारिक अब्रह्मचर्य है तथा इसी प्रकार वैक्रिय शरीर द्वारा मन, वचन, काया
से अब्रह्म का सेवन करना, कराना और अनुमोदन करना ये वैक्रिय अब्रह्म सेवन है। दोनों के सम्मिलित 卐 भेद अठारह होते हैं।
१९. ज्ञाताधर्मकथागं सूत्र के १९ अध्ययन हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) उत्क्षिप्त, (२) संघाट, (३) अण्ड, (४) कूर्म, (५) शैलकऋषि, (६) तुम्ब, (७) रोहिणी, (८) मल्ली, (९) माकन्दी, (१०) चन्द्रिका, (११) दावदव (इस नाम के वृक्षों का उदाहरण), (१२) उदक, (१३) मण्डूक, (१४) तेतलि, (१५) नन्दिफल, (१६) अपरकंका, (१७) आकीर्ण, (१८) सुषमा, और (१९) पुण्डरीक।
२०. बीस असमाधिस्थान इस प्रकार हैं-(१) द्रुतचारित्व-संयम की उपेक्षा करके जल्दी-जल्दी चलना, (२) अप्रमार्जितचारित्व-भूमि आदि का प्रमार्जन किये बिना उठना, बैठना, चलना आदि।
(३) दुष्प्रमार्जितचारित्व-विधिपूर्वक भूमि आदि का प्रमार्जन किये बिना बैठना-चलना, (४) अतिरिक्त ॐ शय्यासनिकत्व-मर्यादा से अधिक आसन या शय्या स्थान ग्रहण करना, (५) रानिकपरिभाषित्व-अपने से 5 बडे आचार्यादि का विनय न करना, अविनय करना, (६) स्थविरोपघातित्व-दीक्षा, आय और श्रुत से,
स्थविर मुनियों के चित्त को किसी व्यवहार से पीड़ा पहुँचाना, (७) भूतोपघातित्व-जीवों का घात करना, 5 (८) संज्वलनता-बात-बात में क्रोध करना या ईर्ष्या की अग्नि से जलना, (९) क्रोधतत्व-क्रोधशील होना,
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| श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
(380)
Shri Prashna Vyakaran Sutra
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