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5. पाँचवीं भावना-स्निग्ध सरस भोजन - त्याग
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FIFTH SENTIMENT: AVOIDING RICH TASTY JUICY FOOD
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१५२. पाँचवीं प्रणीत आहार त्याग समिति भावना वह इस प्रकार है। स्वादिष्ट स्निग्ध-चिकनाई वाले भोजन का त्यागी संयमशील सुसाधु दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, गुड़, शक्कर, मिश्री, मधु, मद्य, माँस,
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खाद्यक - पकवान और खाद्य विकृतियों से रहित आहार करे। वह इन्द्रियों में उत्तेजना उत्पन्न करने वाला फ आहार न करे। दिन में कई बार न खाये और न प्रतिदिन लगातार खाये । न दाल साग अधिक खाये
और न प्रमाण से अधिक भोजन करे। साधु उतना ही हितकर और परिमित आहार करे जितना उसकी
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संयम - यात्रा के लिये पर्याप्त निर्वाहक हो, जिससे मन में उद्विग्नता उत्पन्न न हो और धर्म (ब्रह्मचर्य) से
5 च्युत न हो।
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१५२. पंचमगं - आहार - पणीय- णिद्ध - भोयण - विवज्जए संजए सुसाहू व वगय-खीर - दहिसप्पि - णवणीय - तेल्ल-गुल - खंड - मच्छंडिंग- महु- मज्ज - मंस - खज्जग - विगइ - परिचित्तकयाहारे ण दप्पणं ण बहुसो ण णिइगं ण सायसूपाहियं ण खद्धं, तहा भोत्तव्यं जहा से जायामाया य भवइ, ण य भवइ फ्र विभमण भंसणा य धम्मस्स ।
एवं पणीयाहार - विरइ - समिइ - जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमणग - विरय - गामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते ।
इस प्रकार प्रणीत- आहार की विरति रूप समिति के योग से सुसंस्कृत अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य
की आराधना में अनुरक्त चित्त वाला और मैथुन से विरत जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य को पूर्णतया सुरक्षित 5 कर लेता है।
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152. Fifth sentiment of a monk is prohibition of tasty food and the food that contains lot of butter. The monk practicing restraints should take food free from milk and ghee, butter, oil, sugar, honey, intoxicating substances and roasted things which disturb the mind. He should not take such food that disturbs the senses. He should not eat more than his absolute need during the day. He should not eat continuously daily. He should not take food that contains more of pulses and tasty products. He should take only that much food which is absolutely essential for his life of ascetic restraint, which may not create restlessness in his mind and due to which he may not fall from his ascetic discipline.
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Thus a monk who keeps his mind detached from rich food in a state of equanimity, is practicing vow of chastity and is detached from sex he is in control of his senses and remains well secure in his vow of brahmcharya.
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श्रु. २, चतुर्थ अध्ययन : ब्रह्मचर्य संवर
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Sh. 2, Fourth Chapter: Chastity Samvar
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