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म अभिग्रह करना, तप तथा मूलगुण आदि एवं विनय आदि योगों से अन्तःकरण को भावित करना 5
चाहिए; जिससे ब्रह्मचर्यव्रत खूब स्थिर-दृढ़ हो। म अब्रह्मनिवृत्ति (ब्रह्मचर्य) व्रत की रक्षा के लिए भगवान महावीर ने यह प्रवचन कहा है। यह प्रवचन 5
परलोक में फलप्रदायक है, भविष्य में कल्याण करने वाला है, शुद्ध है, न्याययुक्त है, अकुटिल (सरल) 卐 है, सर्वोत्तम है और दुःखों और पापों का उपशमन करने वाला है।
147. Avoiding the prohibitions, the practitioner of vow of celibacy should engage himself in activities mentioned ahead. ____What are these activities ? Those activities are as under :
Not to take bath, not to wash teeth, to allow perspiration to stick to the body to allow the dirt stick to the body, to practice complete silence, to remove hair by hand, to forgive, to subdue senses, to remain without clothes or to wear a little clothing, to endure calmly pangs of hunger and thirst, to keep only a few articles, to endure heat and cold, to sleep on a piece of wood, to have a seat on ground, to go to the houses for seeking offerings and to remain in state of equanimity both when he gets or does
not get alms, to tolerate disgrace, praise or adverse talk about him, to 4 tolerate mosquito bite and the like are such activities. He should make a Si decision in his mind in what manner he shall accept the offering and 4
stick to it (the abhigraha). He should practice austerities and other basic 5 principles. He should sense the masters with a sense of humility so that 4 he may remain completely steadfast in his vow of brahmacharya.
Bhagavan Mahavir has given this sermon in order to remain safe in practice of the vow of brahmcharya. It is beneficial in the next life and in
future. It is pure, based on justice and free from crookedness. It is the Si best of all. It eliminates or subdues pains and sins. 3 विवेचन : कामवासना ऐसी प्रबल है कि तनिक-सी असावधानी होते ही मनुष्य के मन को विकृत कर देती
है। यदि मनुष्य तत्काल न सँभल गया तो वह उसके वशीभूत होकर दीर्घकालिक साधना से पतित हो जाता है
और फिर न घर का न घाट का रहता है। उसकी साधना खोखली, निष्प्राण, दिखावटी या आडम्बरमात्र रह ॐ जाती है। ऐसा व्यक्ति अपने साध्य से दूर पड़ जाता है। उसका बाह्य कष्टसहन निरर्थक बन जाता है।
प्रस्तुत पाठों में अत्यन्त तेजस्वी एवं प्रभावशाली शब्दों में ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन किया गया है। यह महिमागान जहाँ उसकी श्रेष्ठता को प्रदर्शित करता है, वहीं उसकी दुराराध्यता का भी सूचक है। यही कारण है है कि इसकी आरधना के लिए अनेकानेक विधि-निषेधों का दिग्दर्शन कराया गया है। * सच्चे साधक को अपने उच्चतम साध्य पर-मुक्ति पर और उसके उपायों पर ही अपना सम्पूर्ण मनोयोग
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श्रु.२, चतुर्थ अध्ययन : ब्रह्मचर्य संवर
(363)
Sh.2, Fourth Chapter: Chastity Samvar
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