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वस्तुतः उपर्युक्त श्लोक कथन किसी मोहग्रस्त पिता का अपने कुमार पुत्र को संन्यास ग्रहण करने से विरत
करने के लिए है । 'चरिष्यसि' इस क्रियापद से यह आशय स्पष्ट रूप से ध्वनित होता है। यह किसी सम्प्रदाय या
परम्परा का सामान्य विधान नहीं है, अन्यथा 'चरिष्यसि' के स्थान पर 'चरेत्' अथवा इसी अर्थ को प्रकट करने
वाली कोई अन्य क्रिया होती ।
परन्तु धृतिमान और धर्मज्ञ पुरुष इस रीति को नहीं मानते। वे प्रमाण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं
अनेकानि सहस्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् । दिवंगतानि विप्राणामकृत्वा कुलसन्ततिम् ॥
अर्थात् हजारों बाल ब्रह्मचारी संतान उत्पन्न किये बिना ही स्वर्ग में चले गये ।
तात्पर्य यह है कि स्वर्ग - प्राप्ति के लिए पुत्र को जन्म देना आवश्यक नहीं है। स्वर्ग प्राप्ति यदि करने से ही होती हो तो वह बड़ी सस्ती, सुलभ और सुसाध्य हो जाये ! फिर तो कोई विरला ही स्वर्ग से
पुत्र उत्पन्न
वंचित
रहे !
ब्रह्मचर्य मत निरपवाद होता है बाकि के अहिंसा आदि व्रतों में तो कदाचित् अपवाद वश छूट भी दी जाती है । लेकिन ब्रह्मचर्य में जरा भी छूट नहीं है। किसी भी हालत में इसका खण्डन विहित नहीं है। जैसा कि
भाष्यकार
ने कहा है ।
ब्रह्मचर्य उत्तमोत्तम धर्म है और वह प्रत्येक अवस्था में आचरणीय है। आर्हत परम्परा में तथा भारतवर्ष की अन्य परम्पराओं में भी ब्रह्मचर्य की असाधारण महिमा का गान किया गया है और अविवाहित महापुरुषों के 5
प्रव्रज्या एवं संन्यास ग्रहण करने के अगणित उदाहरण उपलब्ध हैं।
नवि किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्धं वावि जिणवर्रिदेहिं ।
मोत्तुं मेहुणभावं, न तं विना रागदोसेहिं ॥
अर्थात् तीर्थंकरों ने मैथुन के सिवाय न तो किसी बात को एकान्त रूप से अनुमत किया है और न किसी चीज का निषेध किया है- सभी विधि - निषेधों के साथ आवश्यक अपवाद जुड़े हैं। सिर्फ मैथुन
एकान्ततः
5 भाव का ही निरपवाद रूप से त्याग बताया है। कारण यह है कि मैथुन (तीव्र) राग-द्वेष अथवा रागरूप दोष के
बिना नहीं होता ।
ब्रह्मचर्य की इस असामान्य महिमा के कारण ही
फ्र
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
देव - दाणव- गंधब्बा, जक्ख - रक्खस - किन्नरा | बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जं करेंति ते ॥
अर्थात् देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी उस ब्रह्मचारी को नमस्कार करते हैं, जो इस दुष्कर व्रत का आचरण करता है।
Elaboration-The author has narrated chastity and its importance in very important words. It is stated to be at the roots of austerities, codes, knowledge, perception conduct, right faith and humility. The purport is only the person practicing chastity meticulously can practice
that
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Shri Prashna Vyakaran Sutra
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