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________________ ))) )) ) )) )) )) )) ) ))) ) 895555555555555555555555555555 4 humility, virginity, austerity wither away suddenly like a pot that fi breaks. They get churned like curd. They get groomed like flour. They get pierced like the body having thorn pricked into it. They get fallen like a rock fallen from a hill. They get pierced like a sawn piece of wood. They reach a sad state. They get destroyed like the scattered wood burnt with fire. The vow of chastity is like god. It is the most worthy one. विवेचन : शास्त्रकार ने प्रस्तुत पाठ में प्रभावशाली शब्दों में ब्रह्मचर्य के महात्मय और स्वरूप का निरूपण किया है। उसे तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व एवं विनय का मूल कहा है। जड ठाणी जड मोणी. जड झाणी बक्कली तवस्सी वा। पत्थंतो य अबंभं, बंभावि न रोयए मज्झ॥ सं पढियं तो गुणियं, तो मुणियं तो य चेइओ अप्पा। आवडियपेल्लियामंतिओवि न कुणइ अकज्जं॥ अर्थात् भले कोई कायोत्सर्ग में स्थित रहे, भले मौन धारण करके रहता हो, ध्यान में मगन हो, छाल के कपड़े धारण करता हो या तपस्वी हो, यदि वह अब्रह्मचर्य की अभिलाषा करता है तो मुझे नहीं सुहाता, फिर भले ही वह साक्षात ब्रह्मा ही क्यों न हो! शास्त्रादि का पढ़ना, गुनना-मनन करना, ज्ञानी होना और आत्मा का बोध होना तभी सार्थक है जब + विपत्ति आ पड़ने पर भी और सामने से आमंत्रण मिलने पर भी मनुष्य अकार्य अर्थात् अब्रह्म सेवन न करे। तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य की विद्यमानता में ही तप, नियम आदि का निर्दोष रूप से पालन सम्भव है। ॐ जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित हो गया उसका समग्र आचार खण्डित हो जाता है। इस तथ्य पर मूल पाठ में बहुत बल के 卐 दिया गया है। जमीन पर पटका हुआ घड़ा जैसे फूट जाता है-किसी काम का नहीं रहता वैसे ही ब्रह्मचर्य के ॥ विनष्ट होने पर समग्र गुण नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य के भंग होने पर अन्य समस्त गुण मथे हुए दही जैसे, पिसे ॐ हुए धान्य जैसे चूर्ण-विचूर्ण (चूरा-चूरा) हो जाते हैं। इत्यादि अनेक उदाहरणों से इस तथ्य को समझाया गया है। मूल पाठ में ब्रह्मचर्य के लिए 'सया विसुद्धं' विशेषण का प्रयोग किया गया है। टीकाकार ने इसका अर्थ सदा ॐ अर्थात् 'कुमार आदि सभी अवस्थाओं में' किया है। कुछ लोग कहते हैं कि अपुत्रस्य गति स्ति, स्वर्णो नैव च नैव च। तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा, पश्चाद्धर्म चरिष्यसि॥ ___ अर्थात् पुत्रहीन को सद्गति प्राप्त नहीं होती। फलतः उसे स्वर्ग तो कदापि मिल ही नहीं सकता। अतएव पुत्र ॐ का मुख देखकर-पहले पुत्र को जन्म देकर पश्चात् चारित्र धर्म का आचरण करना चाहिये। यह मान्यता रखने वालों से हम पूछते हैं कि जब देवव्रत ने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा की तो उसे भीष्म' क्यों कहा गया? और उम्र भर उसे वंदन और पूजन के योग्य क्यों समझा गया। उसे इच्छा मृत्यु का वरदान क्यों मिला? और मरने के बाद ॐ उसकी उत्तम गति क्यों हुई? इसका जवाब सिर्फ एक है कि उसने अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया। 2. अभयदेत टीका पृ.132 (आगमोदय) श्रु.२, चतुर्थ अध्ययन : ब्रह्मचर्य संवर (349) Sh.2, Fourth Chapter : Chastity Samvar )) 听听听听听听听听 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 ) )) )) )) ) ) )) ) 卐55554))) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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