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________________ 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 8555555555555555555555555555555555 ॐ चाहिए। ली जाने वाली वस्तु का दाता अथवा अनुज्ञाता भी वही होना चाहिए जो उसका स्वामी हो। व्रत की पूर्ण म आराधना के लिए यह नियम सर्वथा आवश्यक ही है। मगर प्रश्न यह उठता है कि साधु जब मार्ग में चल रहा है हो, ग्राम, नगर आदि से दूर जंगल में हो और उसे अचानक तिनका जैसी किसी वस्तु की आवश्यकता हो जाये ॥ तो वह क्या करे? ___इसका समाधान यह है कि शास्त्र में अनुज्ञा देने वाले पाँच बतलाये गये हैं-(१) देवेन्द्र, (२) राजा, (३) गृहपति (मण्डलेश, जागीरदार या ठाकुर), (४) सागारी (गृहस्थ), और (५) साधर्मिक। भगवती सूत्र के शतक ॐ १६, उ० २ में इसका उल्लेख है कि पूर्वोक्त परिस्थिति में तृण, कंकर आदि तुच्छ-मूल्यहीन वस्तु की यदि 卐 आवश्यकता हो तो साधु देवेन्द्र की अनुज्ञा से उसे ग्रहण कर सकते हैं। इस आशय को व्यक्त करने के लिए मूल पाठ में इस व्रत या संवर के लिए दत्तमणुण्णायसंवरो 9 (दत्त-अनुज्ञातसंवर) शब्द का प्रयोग किया गया है, केवल 'दत्तसंवर' नहीं कहा गया। इसका तात्पर्य यही है कि म जो पीठ. फलक आदि वस्तु किसी गृहस्थ के स्वामित्व की हो उसे स्वामी के देने पर ग्रहण करना चाहिए और 5 जो धूलि या तिनका जैसी तुच्छ वस्तुओं का कोई स्वामी नहीं होता-जो सर्व साधारण के लिए मुक्त हैं, उन्हें । ॐ देवेन्द्र की अनुज्ञा से ग्रहण किया जाये तो वे अनुज्ञात हैं। उनके ग्रहण से व्रतभंग नहीं होता। ___ अदत्तादान के विषय में कुछ अन्य शंकाएँ भी उठाई जाती हैं, यथा शंका-साधु कर्म और नोकर्म का जो ग्रहण करता है, वह अदत्त है। फिर व्रतभंग क्यों नहीं होता? समाधान-जिसका देना और लेना सम्भव होता है. उसी वस्तु में स्तेय-चौर्य-चोरी का व्यवहार होता है। कर्म-नोकर्म के विषय में ऐसा व्यवहार नहीं हो सकता. अतः उनका ग्रहण अदत्तादान नहीं है। शंका-साधु रास्ते में या नगरादि के द्वार में प्रवेश करता है, वह अदत्तादान क्यों नहीं है ? ___समाधान-रास्ता और नगरद्वार आदि सामान्य रूप से सभी के लिए मुक्त हैं, साधु के लिए भी उसी प्रकार के अनुज्ञात हैं जैसे दूसरों के लिए। अतएव यहाँ भी अदत्तादान नहीं समझना चाहिए। अथवा जहाँ प्रमादभाव है वहीं अदत्तादान का दोष होता है। रास्ते आदि में प्रवेश करने वाले साधु में प्रमत्तयोग नहीं होता, अतएव वह * अदत्तादानी नहीं है। तात्पर्य यह है कि जहाँ संक्लेशभावपूर्वक प्रवृत्ति होती है वहीं अदत्तादान होता है, भले ही 卐 वह बाह्य वस्तु को ग्रहण करे अथवा न करे। अभिप्राय यह है कि जिन वस्तुओं में देने और लेने का व्यवहार सम्भव हो और जहाँ संक्लिष्ट परिणाम के साथ बाह्य वस्त को ग्रहण किया जाये, वहीं अदत्तादान का दोष लागू होता है। जो अस्वामिक या सस्वामिक वस्तु ॥ म सभी के लिए मुक्त है या जिसके लिए देवेन्द्र आदि की अनुज्ञा ले ली गई है, उसे ग्रहण करने अथवा उसका उपयोग करने से अदत्तादान नहीं होता। साधु को दत्त और अनुज्ञात वस्तु ही ग्राह्य होती है। सूत्र में असंविभागी और असंग्रहरुचि पदों द्वारा व्यक्त किया गया है कि गच्छवासी साधु को गच्छवर्ती साधुओं की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखना चाहिए। उसे स्वार्थी नहीं होना चाहिए। आहारादि शास्त्रानुसार जो भी प्राप्त हो उसका उदारतापूर्वक यथोचित संविभाग करना चाहिए। किसी दूसरे साधु को किसी उपकरण की या अमुक प्रकार के आहार की आवश्यकता हो और वह निर्दोष रूप से प्राप्त भी हो रहा हो तो केवल 5 स्वार्थीपन के कारण उसे ग्रहण में अरुचि नहीं करनी चाहिए। गच्छवासी साधुओं को एक-दूसरे के उपकार और अनुग्रह में प्रसन्नता अनुभव करनी चाहिए। 白555555555555 5555 555555555555555 5 55555555555 $$$$$ | श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र (326) Shri Prashna Vyakaran Sutra %% %% %% %%% %%%%% % %% %% %% %% % %%%% %% %B Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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