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129. O Jambu, the practitioner of meritorious vows ! The third gateway of Samvar is to receive whatever is needed only permission. It is a major vow. It is the cause of favours relating to this world and the next. It lies in discarding the desire of stealing things belonging to others. In this vow one takes an oath not to steal things belonging to others. This vow has no limit; mentally and vocally one subdues his infinite desire to engage in sinful act of robbing articles belonging to others. As a result of this vow, the mind gets involved much in self-restraint that hands and feet become disinterested having money belonging to others. It is without any internal or external hurdles. It is in all the religions. The omniscient have declared it as worthy of being followed. It stops the inflow of Karma. One who practices it does not have any fear of the king or of the administration. cannot affect him. It is approved by heroic people and the true monks. It is the conduct of best monks.
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विवेचन : अस्तेय महाव्रत है। जीवन पर्यन्त सूखे तिनके जैसे अत्यन्त तुच्छ पदार्थ को भी अदत्त या अननुज्ञात ग्रहण न करना अपने आप में एक महान् साधना है। इसका निर्वाह करने में आने वाली बड़ी-बड़ी कठिनाइयों को समभाव से, मन में तनिक भी मलीनता लाये बिना, सहन कर लेना और वह भी स्वेच्छा से, 5 कितना कठिन है ! अतएव इसे महाव्रत कहना सर्वथा समुचित ही है।
अस्तेय शब्द के तीन और पर्यायवाचक मिलते हैं। 1. अचौर्य, 2. अदत्तादान विरमण, 3. दत्तानुज्ञात
यह व्रत अनेकानेक गुणों का जनक है। इसके धारण और पालन से इस लोक में भी उपकार होता है और परलोक में भी, अतएव इसे गुणव्रत भी कहा गया है। यह व्रत सभी व्रतों के साथ सम्बद्ध होने से उनकी पराकाष्ठा तक को यह स्पर्श करता है। क्योंकि अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का भी तभी पालन हो सकता है जब जीवन में मन-वचन-काया से अचौर्य वृत्ति आ जायेगी ।
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श्रु.२, तृतीय अध्ययन : दत्तानुज्ञात संवर
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अस्तेयव्रत की आराधना से अपरिमित तृष्णा और अभिलाषा के कारण कलुषित मन का निग्रह होता है । द्रव्य प्राप्त है, उसका व्यय न हो जाये, इस प्रकार की इच्छा को यहाँ तृष्णा कहा गया है और अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की बलवती लालसा को महेच्छा कहा गया है।
'सुसंजमिय-मण- हत्थ - पायनिहुयं' इस विशेषण के द्वारा शास्त्रकार ने यह सूचित किया है कि मन पर यदि सम्यक् प्रकार से नियंत्रण कर लिया जाये, मन पूरी तरह काबू में रहे तो हाथों और पैरों की प्रवृत्ति स्वतः रुक जाती है। जिस ओर मन नहीं जाता उस ओर हाथ-पैर भी नहीं हिलते। यह सूचना साधकों के लिए बहुत 5 महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है। साधकों को सर्वप्रथम अपने मन को संयत बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा करने पर वचन और काय अनायास ही संयत हो जाते हैं।
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Elaboration-Non-stealing is a major vow. It is a great spiritual practice not to accept even an insignificant article such as a piece of straw without the permission of its owner throughout life. One faces
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Sh. 2, Third Chapter: To Get... Samvar
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