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5 विकथाकारक हो - स्त्री आदि सम्बन्धित चारित्रनाशक या अन्य प्रकार से अनर्थ का हेतु हो, जो निरर्थक वाद या कलहकारक हो अर्थात् जो वचन निरर्थक वाद-विवादरूप हो और जिससे कलह उत्पन्न हो, जो वचन अनार्य हो - अनाड़ी लोगों के योग्य हो-आर्य पुरुषों के बोलने योग्य न हो अथवा फ अन्याययुक्त हो, जो अन्य के दोषों को प्रकाशित करने वाला हो, विवादयुक्त हो, दूसरों की विडम्बना- फजीहत करने वाला हो, जो विवेकशून्य जोश और धृष्टता से भरा हुआ हो, जो लज्जा रहित हो, जो संसार में या सत्पुरुषों द्वारा निन्दनीय हो, ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए। जो घटना भलीभाँति स्वयं न देखी हो, जो बात सम्यक् प्रकार से सुनी न हो, जिसे ठीक तरह यथार्थ रूप में जान नहीं लिया हो, उसे या उसके विषय में बोलना नहीं चाहिए ।
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इसी प्रकार अपनी स्तुति और दूसरों की निन्दा भी ( नहीं करनी चाहिए), जैसे - तू बुद्धिमान नहीं - बुद्धिहीन है, तू धनवान नहीं दरिद्र है, तू धर्मप्रेमी नहीं है, तू कुलीन नहीं है, तू दानपति-दानेश्वरी नहीं है, तू शूरवीर नहीं है, तू सुन्दर नहीं है, तू भाग्यवान नहीं है, तू पण्डित नहीं है, तू बहुश्रुत - अनेक शास्त्रों का ज्ञाता नहीं है, तू तपस्वी भी नहीं है, तुझमें परलोक सम्बन्धी निश्चय करने की बुद्धि भी नहीं है, आदि । अथवा ऐसा वचन जो सदा-सर्वदा जाति (मातृपक्ष), कुल (पितृपक्ष), रूप 5 ( सौन्दर्य), व्याधि (कोढ़ आदि बीमारी), रोग (ज्वरादि) से सम्बन्धित हो, जो पीड़ाकारी या निन्दनीय होने के कारण वर्जनीय हो न बोलने योग्य हो, अथवा जो वचन द्रोह-कारक अथवा द्रव्य-भाव से आदर एवं उपचार से रहित हो - शिष्टाचार के अनुकूल न हो अथवा उपकार का उल्लंघन करने वाला हो, इस प्रकार का यथार्थ - सद्भूतार्थ वचन भी नहीं बोलना चाहिए।
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[2] The truth which causes obstruction in life of self-restraint, should 5 not be uttered even in the slightest form. (It is because such a word although true, is not auspicious. It does not cause welfare. It is violent. So it cannot be termed as truth). There is a talk which is true but it contains elements of violence. It is going to create friction. It is going to result in bad opinion about women, administration or the state or in some other way. It is going to produce useless discussion or dispute. It is not the talk of civilised people. It is the talk of the rustic. It contains elements of injustice. It is just to publicise faults of others. It is full of disgust for them. It is affecting the reputation of others. It lacks sense of discrimination. It is full of false ego. It is shameless. It is condemned by 5 the common people and the worthy. One should not engage in such a talk. A person has not seen an incident properly himself. He has not rightly heard about it. He has not understood it properly in true context. In such a case he should not talk about it.
Similarly one should not praise his own act. He should also not condemn others. He should not address other as worthless, poor,
Shri Prashna Vyakaran Sutra
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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