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की ११५. अहिंसा महाव्रत की तीसरी भावना वचनसमिति है। पापरूप वाणी के द्वारा किंचित् मात्र भी म
सावद्य अधर्मयुक्त कठोर, घातक एवं संक्लेशजनक वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इस प्रकार की । 卐 वाक्समिति (भाषासमिति) के योग से युक्त अन्तरात्मा वाला निर्मल, संक्लेशरहित और अखण्ड चारित्र
की भावना से ओतप्रोत अहिंसक साधु सुसाधु होता है। 4. 115. The third sentiment of the great vow of non-violence is $i
equanimity of speech. One should not utter harsh, pinching or hurting word that may cause even the slightest fault in respect of practice of Dharma. He should not use language having an element of sin. A monk who practices equanimity of speech, has dirtless inner self and faultless conduct; he is saturated with the feeling of non-violence. He is called a real true monk. चतुर्थ भावना : आहारैषणासमिति FOURTH SENTIMENT : EQUANIMITY IN SEEKING FOOD
११६. चउत्थं आहारएसणाय सुद्धं उंछं गवेसियवं अण्णाए अगढिए अदुट्टे अदीणे अकलुणे अविसाई अपरितंतजोगी जयण-घडण-करण-चरिय-विणय-गुण-जोग-संपओगजुत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए जुत्ते समुदाणेऊण भिक्खचरियं उंछं घेत्तूण आगओ गुरुजणस्त पासं गमणागमणाइयारे ॥
पडिक्कमण-पडिक्कंते आलोयणदायणं य दाऊण गुरुजणस्स गुरुसंदिट्ठस्स वा जहोवएसं णिरइयारं च 5 अप्पमत्तो पुणरवि अणेसणाए पयओ पडिक्कमित्ता पसंते आसीणसुहणिसण्णे मुहुत्तमित्तं च
झाणसुहजोगणाणसज्झायगोवियमणे धम्ममणे अविमणे सुहमणे अविग्गहमणे समाहियमणे सद्धासंवेगणिज्जरमणे पवयणवच्छलभावियमणे उद्दिऊण य पहट्टतुट्टे जहारायणियं णिमंतइत्ता य साहवे भावओ य विइण्णे य गुरुजणेणं उपविढे। ___ संपमज्जिऊण ससीसं कायं तहा करयलं, अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अगरहिए अणज्झोववण्णे अणाइले अलुद्धे अणत्तट्ठिए असुरसुरं अचवचवं अदुयमविलंबियं अपरिसाडियं आलोयभायणे जयं पयत्तेण , ववगय-संजोग-मणिंगालं च विगयधूमं अक्खोवंजणाणुलेवणभूयं संजमजायामायाणिमित्तं संजमभारवहणट्ठयाए भुंजेज्जा पाणधारणट्ठयाए संजएण समियं एवं आहारसमिइजोगेणं भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिवणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू।
११६. चौथी भावना एषणासमिति है। आहार की एषणा सम्बन्धी समस्त दोषों से रहित, मधुकरी में वृत्ति से-अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए। भिक्षा लेने वाला साधु अज्ञात ॐ रहे-अज्ञात सम्बन्ध वाला रहे, अर्थात् अपने कुल, परिवार व सम्बन्धों का परिचय देकर भिक्षा प्राप्त न 卐 करे। गृद्धि-आसक्ति से रहित हो, अदुष्ट-द्वेष से रहित हो, अर्थात् भिक्षा न देने वाले, अपर्याप्त भिक्षा देने
वाले या नीरस भिक्षा देने वाले दाता पर द्वेष न करे। करुण-दीन या दयनीय-दयापात्र न बने। भिक्षा न के मिलने पर विषाद न करे। मन-वचन-काय की सम्यक् प्रवृत्ति में निरन्तर निरत रहे। प्राप्त संयमयोगों
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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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Shri Prashna Vyakaran Sutra
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