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________________ 5555555555%%%%%%%% %%%%%%%%%%%% %% 卐 १०५. इन संवरद्वारों में प्रथम जो अहिंसा है, वह त्रस और स्थावर-समस्त प्राणियों का क्षेमकुशल करने वाली है। मैं पाँच भावनाओं सहित उस अहिंसा के गुणों का संक्षिप्त कथन करूँगा॥ ३॥ 105. Of these gateways of Samvar the first, Ahimsa, is instrumental in the well being of all living beings, mobile and immobile. I will state in brief the attributes of that Ahimsa alongwith the five intrinsic sentiments (3). विवेचन : ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के बन्ध का कारण आस्रव कहलाता है। आस्रव द्वारों को रोक देने । का कार्य संवर कहलाता है। संवर के पाँच भेद कहे गये हैं- अहिंसा, सत्य, दत्तादान, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस श्रमण धर्म, अनित्यत्व आदि बारह भावनायें ये सभी संवर के साधन हैं। अतः इन सब 卐 संवरों को अहिंसादि पाँच संवरों एवं उनकी भावनाओं में अन्तर्गत कर लिया गया है। सरलतापूर्वक संवर का अर्थ समझाने के लिए एक उदाहरण दिया गया है-जिस प्रकार एक नौका अथाह ॐ समुद्र में स्थित है। पानी में पड़ा काष्ठ धीरे-धीरे गल जाने या जीर्ण हो जाने से नौका में कुछ छिद्र हो गये और 卐 समुद्र का जल नौका में प्रवेश करने लगा। जल के भार के कारण वह नौका कभी भी डूब सकती है। तब चतुर नाविक ने उन छिद्रों को देखकर उन्हें बन्द कर दिया। नौका के डूबने की आशंका समाप्त हो गई। अब नौका ॐ सकुशल किनारे लग जायेगी। इसी प्रकार इस संसार-सागर में कर्म-वर्गणारूपी अथाह जल भरा है, अर्थात् सम्पूर्ण लोक में अनन्तॐ अनन्त कार्मण-वर्गणाओं के सूक्ष्म पुद्गल ठसाठस भरे हुए हैं। उस अथाह जल के बीच में आत्मारूपी नौका ऊ स्थित है। हिंसा आदि आस्रवरूपी छिद्रों के द्वारा उसमें कर्मरूपी जल भरा जा रहा है। यदि उस जल को रोका न जाये तो कर्मों के भार से वह नौका एक दिन डूब जायेगी-अर्थात् आत्मा नरकादि अधोगति में चली जायेगी। मगर विवेक ज्ञान-सम्पन्न नाविक कर्मागमन के कारणों को देखता है और उन्हें शीघ्र बन्द कर देता है, अर्थात् ॐ अहिंसा आदि के आचरण से हिंसादि आश्रवों को रोक देता है। जब आस्रव रुक जाते हैं, कर्मबन्ध के कारण + समाप्त हो जाते हैं तो कर्मों का नवीन बन्ध रुक जाता है और आत्मारूपी नौका कुशलक्षेम संसार-सागर से पार पहुँच जाती है। म यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि नवीन पानी के आगमन को रोकने के साथ ही नौका में जो जल पहले भर चुका है, उसे भी उलीचकर हटा देना पड़ता है। इसी प्रकार जो कर्म पहले बंध चुके हैं, उन्हें निर्जरा ॐ द्वारा नष्ट करना आवश्यक है। किन्तु यह क्रिया संवर का नहीं, निर्जरा का विषय है। यहाँ केवल संवर का ही। 卐 प्रतिपादन किया जा रहा है। 3 प्रथम गाथा में प्रयुक्त 'आणुपुबीए' पद से यह प्रकट किया गया है कि संवरद्वारों की प्ररूपणा अनुक्रम से 卐 की जायेगी। अनुक्रम द्वितीय गाथा में स्पष्ट कर दिया गया है। प्रथम संवरद्वार अहिंसा है, दूसरा सत्य, तीसरा दत्त (अदत्तादानत्याग) चौथा ब्रह्मचर्य और पाँचवाँ अपरिग्रहत्व है। इनमें अहिंसा को प्रथम स्थान दिया गया है. क्योंकि अहिंसा प्रधान और मूल व्रत है। सत्यादि चारों व्रत अहिंसा की रक्षा के लिए हैं। नियुक्तिकार ने कहा है निद्दिढ़ एत्थ वयं इक्कं चिय जिणवरेहिं सव्वेहि। पाणाइवायवेरमणमवसेसा तस्स रक्खडा॥ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र (248) Shri Prashna Vyakaran Sutra 8954555555559555555555 558 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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