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such as Bharat, Airavat and others are also inhabited by men like 5 Chakravati, Vasudev, Baladeva, Mandlik Kings, Crown princes; many 卐 prosperous people, persons honoured by the state (having gold ornament on their forehead as a mark of that honour), commandar in chiefs, rich people having wealth upto the height of an elephant, noblemen (who wear the emblem given to them by the king-the god of wealth), the state officials (appointed to look after the welfare and to save the country from decline), traders (who move out for business with other small traders), headmen of villages or heads of large families and ministers. All these people and suchlike others also collect more and more articles that increase their attachment.
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Parigraha (attachment in worldly objects) has no end. It is not capable of helping anyone. It is incapable of saving people from misery. Its end is also painful. It is unstable. It is not permanent as it is 導 destroyed every moment. It is the fundamental cause of all sins. It is worthy to be discarded by the person learned in scriptures. It is the cause of killing and bondage. People experience trouble, pain, hurt and bondage because of the feeling of attachment (parigraha). Attachment itself becomes the cause of dreadful quarrels leading to killings and bondage for the persons involved in it. Thus the above-mentioned celestial beings and the prosperous human beings, who collect and store money, gold and jewels remain engrossed in greed. They move in this world, which is full of all type of troubles.
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विवेचन प्रस्तुत पाठ से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि अब्रह्मचर्य की तरह परिग्रह ने भी सभी संसारी 5 प्राणियों को अपने जाल में फँसा रखा है। ऊँची से ऊँची श्रेणी के देव जिन्हें मन इच्छित कामभोग प्राप्त हैं, वे भी आसक्ति और ममत्वरूप परिग्रह से बँधे हैं। यद्यपि यहां चारों निकाय के देवों को परिग्रही बताया है फिर भी पञ्चम स्वर्ग - ब्रह्मलोक के अन्त में सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट; ये पूर्वोत्तर आदि आठ दिशाओं में निवास करने वाले लोकान्तिक देव प्रायः एक भव - मनुष्यजन्म धारण करके मोक्ष पाते हैं, ये परिग्रह के प्रति अत्यल्प ममत्व रखते हैं । तीर्थंकर-प्रभु जब विरक्त होकर मुनिदीक्षा धारण करने के अभिमुख होते हैं, तब ये लोकान्तिक देव उन्हें प्रतिबोधित करने आते हैं। ये देवर्षि होते हैं, जिनवाणी 5 के ज्ञाता और अध्येता होते हैं। ये अपनी समस्त आयु प्रायः इसी प्रकार के उत्तम चिन्तन-मनन में व्यतीत कर फ्र देते हैं। इसी प्रकार अनुत्तरविमानवासी देवों का भी मोह उपशान्त होता है। इसलिए चारों निकाय के देवों में 5 इन्हें परिग्रह के बारे में अपवाद समझना चाहिए। मानवों में षट्खण्ड चक्रवर्ती सम्राट् १६ हजार देव जिसकी सेवा करते हैं और छह खण्ड के विशाल साम्राज्य का स्वामी होता है वह भी इस आसक्ति और ममत्व से ग्रस्त सदा असंतुष्ट और अतृप्त ही रहता है।
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श्रु. १, पंचम अध्ययन : परिग्रह आश्रव
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Sh. 1, Fifth Chapter: Attachment Aasrava
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