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|चित्र-परिचय 101
Illustration No. 10 अब्रह्मचर्य का स्वरूप चित्र में अब्रह्मचर्य के स्वरूप को समझाने के लिये विभिन्न उपमायें दी गई हैं।
(1) इसे प्राणियों को फंसाने वाले दलदल के समान बताया गया है। जिस प्रकार दलदल में फंसकर प्राणी उसके कीचड़ में फिसलकर डूबता ही जाता है, उसी प्रकार अब्रह्मचर्य के दलदल में फँसकर जीवात्मा __ पाप पङ्क से मलिन हो अधोगति में जाता है।
(2) अब्रह्मचर्य का स्वरूप मछुआरे के फैंके हुये जाल के समान बताया गया है। जिस प्रकार फैंके गये जाल में मछली फँसकर असहाय हो जाती है, उसी प्रकार स्त्री द्वारा काम-भोग निमंत्रण रूपी जाल में फँसकर पुरुष असहाय हो जाता है।
(3) जैसे शिकारी हिरन को रस्सियों से बाँध देता है, उसी प्रकार यह अब्रह्मचर्य सेवन संसारी प्राणियों + की आत्मा को मोहपाश या कर्म-जाल में बाँध देता है।
(4) जिस प्रकार मदिरा सेवन के प्रमाद से बेभान व्यक्ति अपना हित-अहित भूलकर पतन के गर्त में गिर जाता है, उसी प्रकार अब्रह्मचर्य सेवन से ब्रह्मचर्य, तप, संयम नष्ट करने वाला प्रमाद उत्पन्न होता है जिसके फलस्वरूप सदाचार और सम्यक्चारित्र का विनाश हो जाता है।
स्त्री के मोहपाश में पड़कर व्रतों का प्रत्याख्यान लेता पुरुष रुक जाता है और भोग-विलास में मग्न हो जाता है। इसलिए अब्रह्मचर्य को दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मबंध का मूल कारण कहा गया है।
--सूत्र 80, पृ. 177 DEFINING NON-CELIBACY In order to explain non-celibacy the illustration provides a few allegories -
(1) It is said to be like a swamp that traps living beings. Like a man caught in a swamp continues to be drawn into it, a soul caught in the swamp of non-celibacy is smeared by the slime of sin and falls to a lower rebirth.
(2) Non-celibacy is said to be like a fishing net thrown by fishermen. A fish caught in the net becomes helpless; in the same way a man caught in the net of carnal invitation by a woman becomes helpless.
(3) Like a hunter ties a deer with ropes, in the same way indulgence in non-celibacy entraps the souls of worldly beings in the knots of fondness and net of karmas.
(4) Intoxicated by drinking wine a man looses all sense of harm and benefit and falls into the void of disgrace. In the same way indulgence in non-celibacy gives rise to the stupor that destroys celibacy, penance and restraint. As a consequence, good behaviour and right conduct are damaged.
A person resolving to take vows is distracted when ensnared by love of a woman and gets involved in carnal pleasures. That is why non-celibacy is said to be the root cause of acquiring the bondage of perception deluding and conduct deluding karmas.
-Sutra-80, page-177
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