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सूत्र का एक भाग है) उस समय वह ज्ञान गुरु द्वारा अपने शिष्यों-प्रशिष्यों को परम्परानुसार मौखिक रूप में दिया जाता था। जैन श्रमणों के आचार के कठोर नियम, श्रमणों की संख्या बल की कमी और बार-बार देश में पड़ने वाले दुर्भिक्षों के कारण कंठस्थ करने की यह धारा टूटती रही। इस स्थिति में जब आचार्यों ने देखा कि श्रुत का ह्रास हो रहा है और ज्ञान में अव्यवस्था आ रही है, तब उन्होंने एकत्र होकर श्रुत को व्यवस्थित करने का निर्णय किया। भगवान महावीर के निर्वाण के करीब 160 वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में जैन श्रमण संघ एकत्रित हुआ। वहाँ एकत्रित हुये उन श्रमणों ने परस्पर आदान-प्रदान कर 11 अंगों को व्यवस्थित रूप प्रदान किया किन्तु उनमें से किसी को भी दृष्टिवाद या 14 पूर्वो का स्मरण नहीं था। (यद्यपि उस समय 14 पूर्वो के ज्ञाता आचार्य भद्रबाहु थे लेकिन वे 12 वर्षीय विशेष प्रकार की योग साधना में संलग्न थे और वे उस समय नेपाल में विराजित थे।) संघ ने दृष्टिवाद के 14 पूर्वो की वाचना के लिए अनेक संतों के साथ मुनि स्थूलभद्र को वहाँ भेजा। उनमें से दृष्टिवाद को ग्रहण करने में मुनि स्थूलभद्र ही समर्थ हुये। किन्तु 10 पूर्वो तक सीखने के बाद उन्होंने अपनी श्रुत-लब्धि का लौकिक दृष्टि से प्रयोग किया। जब यह बात आचार्य भद्रबाहु को ज्ञात हुई तो वो समझ गये कि मुनि स्थूलभद्र में ज्ञान के पाचन की वह पात्रता नहीं रही। अतः उन्होंने वाचना देना बंद कर दिया। इसके बाद संघ के बहुत अनुनय, विनय, प्रार्थना करने पर उन्होंने शेष चार पूर्वो की केवल सूत्र वाचना ही दी, अर्थ वाचना नहीं दी। परिणाम यह हुआ कि सूत्र और अर्थ से 14 पूर्वो का ज्ञान आर्य भद्रबाहु तक और 10 पूर्व का ज्ञान आर्य स्थूलभद्र तक रहा। आचार्य भद्रबाहु के कालधर्म के साथ (अर्थात् वीर सं. 170) इस भरत क्षेत्र में श्रुत केवली परम्परा का विच्छेद हो गया। फिर 10 पूर्व की परम्परा आचार्य वज्र तक चली। आचार्य वज्र का कालधर्म वीर सं. 584 में हुआ। उसके बाद आर्य रक्षित हुये। आर्य रक्षित के बाद भी उत्तरोत्तर श्रुतज्ञान का ह्रास होता रहा और एक समय ऐसा आया जब पूर्वो के ज्ञान वाला कोई विशेषज्ञ नहीं रहा। इस घटना का समय वीर निर्वाण सं. 1000 है।
नन्दी सूत्र की चूर्णि में उल्लेख है कि बारह वर्षीय दुष्काल के कारण ग्रहण, गुणन और अनुप्रेक्षा के अभाव में सूत्र कंठस्थ करने वाले श्रमणों की संख्या कम होने लगी। अतः 12 वर्ष के दुष्काल के बाद स्कंदिल आचार्य के नेतृत्व में साधु संघ मथुरा में एकत्रित हुआ और जिसको जो याद था उसका परिष्कार करके सूत्रों को व्यवस्थित किया गया। इसे माथुरी वाचना कहा जाता है। इसी काल में वल्लभी में नागार्जुन आचार्य ने श्रमण संघ को एकत्रित करके आगमों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया तथा विस्मृत स्थलों (पाठों) की पूर्वापर सम्बन्ध के अनुसार संशोधित करके वाचना दी गई। इसे वलभी वाचना कहा जाता है। इन दोनों वाचनाओं का काल वीर सं. 830-840 के आसपास का माना जाता है।
उपर्युक्त वाचनाओं के करीब 150 वर्ष बाद पुन: वलभी नगर में श्रमण संघ इकट्ठा हुआ और उस समय पूर्व ज्ञान' वाले अंतिम आचार्य देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में दोनों वाचनाओं का समन्वय किया गया और जहाँ तक हो सका अंतर दूर कर एकरूपता लायी गई। दोनों वाचनाओं में जो महत्वपूर्ण
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