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प्रस्तावना
काल के परिवर्तन के स्वभाव वाला यह भरत क्षेत्र अनंत अवसर्पिणी और अनंत उत्सर्पिणीयों से गुजर रहा है। हर अवसर्पिणी और हर उत्सर्पिणी में तीर्थंकर भगवान ज्ञान की गंगा बहाते हैं। भव्य जीव इस गंगा में स्नान करके पवित्र होते हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना करते हैं और संसार से मुक्ति पाते हैं। तीर्थंकर देवों के पश्चात् उनके मुख्य शिष्य गणधरों द्वारा ये परम्परा चलती रहती है। समय के परिवर्तन के साथ धीरे-धीरे ज्ञान का विच्छेद होता है, पुन: तीर्थंकर प्रभु के मुखारविन्द से ज्ञान की गंगा बहती है और ये परम्परा सदा-सर्वदा गतिमान रहती है।
वर्तमान अवसर्पिणी में इस भरत क्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव हुये और आज से करीब 2500 वर्ष पूर्व अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हुये। भगवान महावीर स्वामी के 11 गणधर थे। भगवान की उपस्थिति में ही 9 गणधर मोक्ष पधार गये और भगवान के निर्वाण के साथ ही गौतम स्वामी को केवलज्ञान हुआ । फलतः श्री सुधर्मा स्वामी, जिन्हें उस समय केवलज्ञान नहीं हुआ था, भगवान महावीर के पाट पर प्रथम आचार्य के रूप में विराजित किए गए। (तीर्थंकर के पाट पर केवली विराजमान नहीं होते, क्योंकि सामान्य केवली के और तीर्थंकर के केवलज्ञान में कोई अंतर नहीं होता तो वो "सुयं में आउसं हे आयुष्यमान ! मैंने भगवान से सुना है...... त्तिबेमि - वह मैं कहता हूँ, ऐसा नहीं कह सकते। फिर भगवान का शासन कैसे प्रवाहमान रहता ? ) अतः आज हमारे पास श्रुत के रूप में जो भी ज्ञान है वह पंचम गणधर श्री सुधर्मा स्वामी जी की ही देन है।
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भगवान के श्री मुख से अर्थ रूप देशना प्रवाहित होती है, गणधर भगवन् द्वादशांगी सूत्र के रूप में इसका गुंथन करते हैं। ये द्वादशांगी इस प्रकार है - (1) आचारांग सूत्र, (2) सूत्रकृतांग सूत्र, (3) स्थानांग सूत्र, (4) समवायांग सूत्र, (5) व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवती सूत्र, (6) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, (7) उपासकदशांग सूत्र, (8) अन्तकृद्दशांग सूत्र, (9) अनुत्तरोपपातिकदशांग सूत्र, (10) प्रश्नव्याकरण सूत्र, (11) विपाकसूत्र, और (12) दृष्टिवाद सूत्र ।
भगवान के दो पाट तक तो द्वादशांगी नियम से अखंड रूप में होती है। भगवान ऋषभदेव आदि तीर्थंकरों के शासन में जहाँ असंख्य पाट तक केवलज्ञान विद्यमान होता है, वहाँ द्वादशांगी भी असंख्य पाट तक पूर्ण रूप में हो सकती है पर जिन तीर्थंकर भगवान का शासनकाल छोटा होता है, जैसे भगवान पार्श्वनाथ का (250 वर्ष), वहाँ दो पाट तक तो द्वादशांगी परिपूर्ण रूप में अखंड होती है पर उसके बाद उसमें ज्ञान का शनैः शनैः विच्छेद होना प्रारम्भ हो जाता है। भगवान महावीर की 9वीं पाट परम्परा पर हुये आचार्य भद्रबाहु स्वामी तक 14 पूर्वों का ज्ञान विद्यमान था (14 पूर्व दृष्टिवाद
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