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भिन्न पात्रों व जलाशयों में भिन्न-भिन्न रूप में प्रतिभासित होता है। स्पष्टीकरण-एकान्तरूप से आत्मा को एक
मानना प्रत्यक्ष से और युक्तियों से भी बाधित है। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़ा-मकोड़ा, वनस्पति आदि के रूप में 卐 आत्मा का अनेकत्व प्रत्यक्षसिद्ध है। अगर आत्मा एकान्ततः एक ही हो तो एक का मरण होने पर सबका मरण के + और एक का जन्म होने पर सबका जन्म होना चाहिए। एक के सुखी या दुःखी होने पर सबको सुखी या दुःखी :
होना चाहिए। किसी के पुण्य-पाप पृथक् नहीं होने चाहिए। इस प्रकार सभी लौकिक एवं लोकोत्तर व्यवस्थाएँ । ॐ नष्ट हो जायेंगी। अतएव एकान्त एकात्मवाद भी मृषावाद है।
____ अकर्तृवाद-सांख्यमत के अनुसार आत्मा अमूर्त, चेतन, भोक्ता, नित्य, सर्वव्यापक और अक्रिय है। वह * अकर्ता है, निर्गुण है और सूक्ष्म है।
वे कहते हैं-न तो आत्मा बद्ध होता है, न उसे मोक्ष होता है और वह संसरण करता-एक भव से दूसरे भव में जाता है। मात्र नाना पुरुषों के आश्रित प्रकृति को ही संसार, बन्ध और मोक्ष होता है।
सांख्यमत में मौलिक तत्त्व दो हैं-पुरुष अर्थात् आत्मा तथा प्रधान अर्थात् प्रकृति। सृष्टि के आविर्भाव के समय प्रकृति से बुद्धितत्व, बुद्धि से अहंकार, अहंकार से पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, और पाँच तन्मात्र अर्थात् रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द तथा इन पाँच तन्मात्रों से पृथ्वी आदि पाँच महाभूतों का उद्भव होता है। यह सांख्यसृष्टि की प्रक्रिया है।
सांख्य पुरुष (आत्मा) को नित्य, व्यापक और निष्क्रिय कहते हैं। अतएव वह अकर्ता भी है।
विचारणीय यह है कि यदि आत्मा कर्त्ता नहीं है तो भोक्ता कैसे हो सकता है ? जिसने शुभ या अशुभ कर्म ॐ नहीं किये हैं, वह उनका फल क्यों भोगता है ? ।
पुरुष चेतन और प्रकृति जड़ है और प्रकृति को ही संसार, बन्ध और मोक्ष होता है। जड़ प्रकृति में बन्ध* मोक्ष-संसार मानना मृषावाद है। उससे बुद्धि की उत्पत्ति कहना भी विरुद्ध है। ___सांख्यमत में इन्द्रियों को पाप-पुण्य का कारण माना है, किन्तु वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ नामक उनकी मानी हुई पाँच कर्मेन्द्रियाँ जड़ हैं। वे पाप-पुण्य का उपार्जन नहीं कर सकतीं। स्पर्शन आदि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ भी द्रव्य और भाव के भेद से दो-दो प्रकार की हैं। द्रव्येन्द्रियाँ जड़ हैं। वे भी पुण्य-पाप का कारण नहीं हो सकतीं। भावेन्द्रियाँ आत्मा से कथंचित अभिन्न हैं। उन्हें कारण मानना आत्मा को ही कारणा मानना कहलायेगा।
पुरुष (आत्मा) को एकान्त नित्य (कूटस्थ अपरिणामी), निष्क्रिय, निर्गुण और निर्लेप मानना भी प्रमाण ॐ विरुद्ध है। जब आत्मा सुख-दुःख का भोक्ता है तो अवश्य ही उसमें परिणाम-अवस्था परिवर्तन मानना पड़ेगा। ॥ 5 अन्यथा वह कभी सुख का भोक्त और कभी दुःख का भोक्त कैसे हो सकता है? एकान्त अपरिणामी ॥
(अपरिवर्तनशील) होने पर जो सुखी है, वह सदैव सुखी ही रहना चाहिए और जो दुःखी है, वह सदैव दुःखी ही रहना चाहिए। __आत्मा को क्रियारहित मानना भी मिथ्या है। प्रत्यक्ष आत्मा में गमनागमन, जानना-देखना आदि क्रियाएँ तथा सुख-दुःख, हर्ष-विषाद आदि की अनुभूतिरूप क्रियाएँ प्रत्यक्ष देखी जाती हैं।
____ आत्मा को निर्गुण मानना किसी अपेक्षाविशेष से ही सत्य हो सकता है, सर्वथा नहीं। अर्थात् प्रकृति के गुण ॥ 5 यदि उसमें नहीं हैं तो ठीक, मगर पुरुष के गुण ज्ञान-दर्शनादि से रहित मानना योग्य नहीं है। ज्ञानादि गुण यदि ॥
चैतन्यस्वरूप आत्मा में नहीं होंगे तो किसमें होंगे? जड में तो चैतन्य का होना असम्भव है।
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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
(94)
Shri Prashna Vyakaran Sutra
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