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४७. दूसरे, नास्तिकवादी, जो लोक में विद्यमान वस्तुओं को भी अवास्तविक अथवा विपरीत रूप में कहने के कारण-'वामलोकवादी' कहलाते हैं। उनका कथन इस प्रकार है-“यह जगत् शून्य (सर्वथा असत्) है, क्योंकि जीव का अस्तित्व नहीं है। वह मनुष्यभव में या देवादि-परभव में नहीं जाता। वह पुण्य-पाप का किंचित् भी स्पर्श नहीं करता। सुकृत-पुण्य या दुष्कृत-पाप का (सुख-दुःख रूप) फल भी नहीं है। यह शरीर पाँच भूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से बना हुआ है। वायु के निमित्त से वह सब क्रियाएँ करता है। कुछ लोग कहते हैं-श्वासोच्छ्वास की हवा ही जीव है।
कुछ (बौद्ध) लोगों का कथन है कि यह आत्मा पाँच स्कन्ध रूप हैं। कोई मन को ही जीव (आत्मा) मानते हैं। कोई वायु को ही जीव के रूप में स्वीकार करते हैं। किन्हीं-किन्हीं का मन्तव्य है कि शरीर सादि और सान्त है-शरीर का उत्पाद और विनाश हो जाता है। यह भव ही एक मात्र भव है। इस भव का समूल नाश होने पर सर्वनाश हो जाता है। अर्थात् आत्मा जैसी कोई वस्तु शेष नहीं रहती। इस प्रकार मषावादी लोग कहते हैं। दान देना. व्रतों का आचरण करना. पौषध की आराधना करना. तपस्या करना, संयम का आचरण करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना आदि कल्याणकारी अनुष्ठानों का (कुछ भी) फल नहीं होता। प्राणवध और असत्यभाषण भी अशुभ फलदायक नहीं हैं; चोरी और परस्त्री सेवन भी कोई पाप नहीं हैं। परिग्रह और अन्य पापकर्म भी निष्फल हैं अर्थात उनका भी कोई अशुभ फल नहीं होता। नारकों, तिर्यंचों और मनुष्यों की योनियाँ नहीं हैं। देवलोक भी नहीं है। मोक्ष-गमन या मुक्ति भी नहीं हैं। माता-पिता भी नहीं हैं। पुरुषार्थ भी कोई चीज नहीं हैं अर्थात् पुरुषार्थ कार्य की सिद्धि में कारण नहीं है। प्रत्याख्यान त्याग भी नहीं है। भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल नहीं हैं और न मृत्यु है। अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव भी कोई नहीं होते। न कोई ऋषि है, न कोई मुनि है। धर्म और अधर्म का थोड़ा या बहुत-किंचित् भी फल नहीं होता। इसलिए ऐसा जानकर इन्द्रियों के अनुकूल (रुचिकर) सभी विषयों में प्रवृत्ति करो-किसी प्रकार के भोग-विलास से परहेज मत करो। न कोई शुभ क्रिया है और न कोई अशुभ क्रिया है। इस प्रकार लोक के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ विपरीत मान्यता वाले नास्तिक विचारधारा का अनुसरण करते हुए इस प्रकार का मिथ्या कथन करते हैं।
47. The second category is Nastikavadi. The people who pronounce imaginary even these substances, which are actually existing in the world, or describe them in an opposite manner are called vaamalokavadi. Their philosophy is that this world was always unreal because Jiva has no existence. The soul does not transmigrate to human state or celestial state of existence. It does not commit any merit or demerit. There is no cosequence of good deeds or bad deeds. This body is made of five elements-earth, water, fire, air and space. It does various activities because of the air. Some people say the air we breath is Jiva.
Some people (the Buddhists) say that the soul is a formation of five skandhas. Some believe that only mind is Jiva. Some accept air as Jiva. Some believe that the body has a beginning and an end. The body takes
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
(82)
Shri Prashna Vyakaran Sutra
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