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Such living beings generally are ill-fated. They are cursed, dishonoured and hated everywhere. Every one talks ill of them. They have unattractive physical body. They suffer from dreadful diseases like leprosy, fever and the like. They suffer from mental diseases. They are dullards and without proper knowledge. They bear sufferings even in human life.
Do all living beings who take birth as human beings after their earlier life in hell suffer such a sad state ? The reply to this question is available in the text itself. The words 'payaso' and 'saavasesakamma' in the original text need to be understood clearly. Their purport is that all the living being do not meet such a fate. Only those living beings, the consequences of whose sins have not been suffered by them in full, undergo such sufferings.
Some living beings who have suffered the total fruit of their bad deeds in hell, take birth as human beings directly from hell. They become honoured persons and are loved and respected. Some of them who have purified their mundane soul almost completely, become even Tirthankar.
उपसंहार CONCLUSION
४३. एवं णरगं तिरिक्ख-जोणिं कुमाणुसत्तं च हिंडमाणा पावंति अणंताई दुक्खाइं पावकारी। एसो सो पाणवहस्स फलविवागो। इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भयो बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुंचई ण य अवेदयित्ता अत्थि हु मोक्खो त्ति एवमाहंसु णायकुलणंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरणामधेजो कहेसी य पाणवहस्स फलविवागं।
एसो सो पाणवहो चंडो रुद्दो खुद्दो अणारिओ णिग्घिणो णिसंसो महभओ बीहणओ तासणओ अणज्जाओ उव्वेयणओ य णिरवयक्खो गिद्धम्मो णिप्पिवासो णिक्कलुणो णिरयवासगमणणिधणो मोहमहन्भयपवड्डओ मरण-वेमणसो।
पढमं अहम्मदारं सम्मत्तं त्ति बेमि॥१॥
४३. इस प्रकार (हिंसारूप) प्राणवध करने वाले प्राणी नरक और तिर्यंच योनि में तथा कुमानुषअवस्था में भटकते हुए अनन्त दुःखों को भोगते हैं।
यह (उपर्युक्त) प्राणवध (हिंसा) का फलविपाक (भोग) है, जो इहलोक (मनुष्यभव) और परलोक (नारकादि भव) में भोगना पड़ता है। यह फलविपाक अल्प सुख किन्तु (भव-भवान्तर में) अत्यधिक दुःख वाला है। महा भय पैदा करने वाला है और अतीव गाढ़ कर्मरूपी रज से युक्त है। अत्यन्त दारुण है, अत्यन्त कठोर है और अत्यन्त असाता को उत्पन्न करने वाला है। हजारों वर्षों (सुदीर्घ काल) में इससे छुटकारा मिलता है। किन्तु इसे भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता। हिंसा का यह फलविपाक ज्ञातकल-नन्दन महात्मा महावीर नामक जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
श्रु.१, प्रथम अध्ययन : हिंसा आश्रव
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Sh.1, First Chapter: Violence Aasrava
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